दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग
(handicrafts and cottage industries)
आज हम बात करेंगे (कुटीर उद्योग क्या है वर्गीकरण तथा महत्व) दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग के बारे में, या कुटीर उद्योग का अर्थ ; दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग दो प्रकार के छोटे उद्योग होते हैं, जिन्हें अकेले व्यक्ति या छोटे समूह के साथियों के द्वारा संचालित किया जाता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ; प्राचीन काल से ही भारतीय अर्थव्यवस्था में दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। यह कहना मुश्किल है कि उसका प्रादुर्भाव कब हुआ, किंतु इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत के यह उद्योग भारत में प्राचीन समय से ही विश्व प्रसिद्ध थे। मिश्र के गुम्बजों में जो मम्मीज (मृत शरीर को सुरक्षित रखना) रखे हुए हैं, वे 3000 ईसा पूर्व माने जाते हैं। वे भारत की मलमल से लिपटे हुए हैं। भारतीय औद्योगिक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जिस समय आधुनिक उद्योग धंधों की जन्मभूमि यूरोप में जंगली जातियों का निवास था, उसे समय भी भारतवर्ष अपने प्रशंसकों की संपत्ति एवं शिल्पकारों की उत्कृष्ट कला के लिए विश्व प्रसिद्ध था।
रानाडे ने लिखा था, “भारत में चौथी एवं पांचवीं शताब्दी में भी टिकाऊ एवं सुंदर लोहे की वस्तुओं का उत्पादन होता था जो न केवल घरेलू मांग पूरी करता था, बल्कि ये वस्तुएं विदेशों को पर्याप्त मात्रा में निर्यात की जाती थी। दिल्ली का लौह स्तंभ हमारे लौह एवं इस्पात उद्योग की प्राचीनता का ज्वलंत उदाहरण है।” हमारे कुटीर उद्योग धंधों द्वारा निर्मित वस्तुएं विदेशों, जैसे - रोम, मिस्र, यूनान, सीरिया, अरब, ईरान आदि को भेजी जाती थी। बेनिस के अनुसार,"सूती वस्त्र उद्योग का जन्मदाता भारत है तथा यह उद्योग सम्भवतः ईशा से पूर्व भी फलता फूलता रहा है।"
दस्तकारी और कुटीर उद्योगों का वर्गीकरण
दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का वर्गीकरण इन उद्योगों को चार भागों में विभाजित करके अध्ययन किया जा सकता है—
(1) ग्रामीण जीवन निर्वाह उद्योग
इस प्रकार के उद्योग ग्रामीण आवश्यकताओं के लिए अपनाए जाते थे, जैसे -कुम्हार, लोहार, बुनकर, मोची, धोबी, तेली इत्यादि। इस प्रकार के व्यवसाय कुछ हद तक खेती पर निर्भर रहते हैं और उनका भाग्य खेती से ही जुड़ा हुआ होता था।
(2) ग्रामीण कलात्मक उद्योग
इस प्रकार के उद्योग बहुत महत्वपूर्ण होते थे और अपने नाम से जाने जाते थे। उदाहरणार्थ -मेरठ एवं मिर्जापुर का लाख एवं खिलौना उद्योग, मिर्जापुर एवं बनारस का चटाई उद्योग, मालदा एवं मथुरा का रेशम बुनाई, बोदराजपुर (बिहार), शांतिपुर, बिशनपुर का धातु कढ़ाई उद्योग, मिर्जापुर एवं नदियां के मिट्टी बर्तन इत्यादि ऐसी वस्तुएं थीं, जिनकी न केवल देश में मांग थी, बल्कि विदेशों में भी निर्यात होता था।
(3) खेतिहर कला एवं कारीगरी
कृषक अथवा खेतीहर लोगों के पास जब खाली समय होता था अथवा जब खेती का मौसम नहीं होता था, तो लोग अपने घरों पर अतिरिक्त व्यवसाय करते थे। कताई, बुनाई, रस्सी बनाना, चटाई बनाना, ऊनी कपड़ा इत्यादि व्यवसाय इस मद के अंतर्गत आते थे।
(4) शहरी कला के उघोग
ब्रिटिश काल से पूर्व भारत के शहरी क्षेत्र में जो उद्योग स्थापित थे, वे अपनी उत्कृष्ट स्थिति में थे। ढाका की मलमल न केवल देश में बल्कि दुनिया में उत्कृष्ट मानी जाती थी। सभी प्रकार का सूती कपड़ा भारत के लगभग सभी भागों में तैयार किया जाता था जो मलमल के बाद दूसरा स्थान रखता था। लखनऊ की कढ़ाई, बनारस की साड़ियां, ऊनी वस्त्र विशेषकर शाल के लिए कश्मीर, अमृतसर, लुधियाना एवं पंजाब के अन्य शहर महत्वपूर्ण माने जाते थे।
वस्त्र उद्योग के अलावा अन्य उद्योग भी भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। पीतल एवं तांबे से बनी वस्तुओं में बनारस का स्थान महत्वपूर्ण था। राजस्थान के कुछ शहर जेवर निर्माण, लकड़ी पर करीगरी, पत्थर की मूर्तियों के निर्माण में महत्वपूर्ण थे। मैसूर, छोटा नागपुर, मध्य भारत एवं अन्य राज्यों में लोहा गलाने के उद्योग स्थापित थे। नमक बनाने के उद्योग, कागज बनाने के उद्योग देश के कहीं क्षेत्र में स्थापित थे।
यद्यपि 19वीं शताब्दी के मध्य तक दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान था, किंतु बाद में ब्रिटिश सरकार की नीति भारत को औद्योगिक दृष्टि से संपन्न ना होने देने की रही। वह चाहती थी कि भारत कच्चे माल एवं कृषि पदार्थ का उत्पादक एवं निर्यातक रहे तथा पक्के माल का आयातक रहे। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने औद्योगिक दृष्टि से संपन्न कुशल कारीगरों की उपेक्षा की एवं आर्थिक मदद रोक दी तथा कुशल कार्यक्रमों को तरह-तरह की मानसिक एवं शारीरिक यातनाएं दी, ताकि वे अपने व्यवसाय के प्रति हतोत्साहित हो जाए। यही कारण था कि जिस देश के दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग धंधे नष्ट हो गए।
दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का महत्व
कुटीर उद्योग का महत्व ; भारतीय अर्थव्यवस्था में दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग का प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इन उद्योगों के महत्व को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है—
(1) कम पूंजी की आवश्यकता (low capital requirement)
भारी उद्योगों की स्थापना के लिए अधिक पूंजी की आवश्यकता होती है, भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में पूंजी की कमी है। दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना के लिए कम पूंजी की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि भारत में प्राचीन काल में इस प्रकार के उद्योग अधिक विकसित थे।
(2) आय का सामान वितरण (commodity distribution of income)
देश की अर्थव्यवस्था में यह उद्योग इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह धन के न्याय आयुक्त वितरण में बहुत सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं। यह ठीक है कि भारी उद्योगों से उत्पादन वृद्धि होती है किंतु इसे समझ में आय की असमानता बढ़ती है, क्योंकि देश में धान का केंद्रीकरण कुछ ही लोगों के पास हो जाता है। इसके विपरीत, दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग से समाज में धन का वितरण सामान बना रहता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीन काल से देश में आर्थिक असमानता बहुत कम थी।
(3) आधिकारिक रोजगार (official employment)
भारत में अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है जहां उन्हें अदृश्य बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है। दस्तकारी एवं कुटीर व्यवसाय मैं वृद्धि करके अधिक से अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सकता है। तथा इस प्रकार जनसंख्या का कृषि से भार काम किया जा सकता है। जापान इसका एक उदाहरण है जहां घर-घर में इस उद्योग का जाल बिछा हुआ है और वहां बेकारी बहुत कम है।
(4) औद्योगिक विकेंद्रीकरण (industrial decentralization)
छोटे-छोटे उद्योगों की स्थापना होने से देश में औद्योगीकरण के विकेंद्रीकरण को बढ़ावा मिलता है; क्योंकि इस प्रकार के उद्योग देश के प्रत्येक शहर एवं गांव में स्थापित किया जा सकते हैं। इससे देश के प्रत्येक क्षेत्र को समुचित विकास करने का अवसर मिलता था। यही कारण था कि प्राचीन काल में देश के ग्रामीण अर्थव्यवस्था समृद्धि एवं खुशहाल थी।
(5) विशेषीकरण को बढ़ावा (promotion of specialization)
दस्तकारी एवं कुटीर धंधों से विशेषीकरण को बढ़ावा मिलता है। देश के प्रत्येक कारीगर की दक्षता, योगिता एवं अनुभव का लाभ इस व्यवसाय के अपनाने से प्राप्त हो सकता है। इन उद्योगों से निर्मित माल अधिक टिकाऊ एवं कलात्मक होता है। प्राचीन काल में सूती वस्त्र उद्योग विशेष कर ढाका की मलमल के कारण दुनिया में पहिचान थी।
(6) कृषि पर जनसंख्या का भर काम करना (overpopulation on agriculture)
भारत में अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है तथा जनसंख्या बढ़ाने के कारण उसे पर भार अधिक बढ़ता ही जाता है। दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का विकास करके ही इस भर को कम किया जा सकता है।
(7) देश के प्रति रक्षा में सहायता (assist in the defense of the country)
राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग अधिक लाभ दायक सिद्ध होते हैं। क्योंकि दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग देश के संपूर्ण क्षेत्र में फैले होते हैं, जबकि भारी उद्योग कुछ ही क्षेत्र तक सीमित होते हैं। इस दृष्टि से यदि कोई देश दूसरे देश पर आक्रमण कर देता है, तो उसके लिए भारी उद्योगों का नष्ट करना आसान होता है, जबकि लघु एवं कुटीर उद्योगों को पूर्ण रूप से नष्ट करना संभव नहीं है।
(8) नैतिक मूल्यों को बढ़ावा (promote moral values)
दस्तकारियों कुटीर उद्योग की स्थापना में विकास से औद्योगिक शांति, भ्रातृत्व, सहृदयता, सहयोग, अनुशासन, सामाजिक न्याय इत्यादि नैतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार की उद्योगों में पारस्परिक होड़ कम हो जाती है।
(9) औद्योगीकरण के देशों से मुक्ति (freedom from industrializing countries)
भारी एवं बड़े उद्योगों के विकास से देश में केंद्रीकरण, प्रदूषण, औद्योगिक अशांति, कार्य क्षमता पर बुरा प्रभाव जैसे बहुत औद्योगिक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना से इन औद्योगिक देशों से मुक्ति मिल जाती है। इन उद्योगों के विकास से विकेंद्रीकरण को बढ़ावा मिलेगा तथा इसे प्रदूषण की कोई समस्या नहीं होगी।
(10) विदेशी व्यापार में सहायता (foreign trade assistance)
जब उत्पादक छोटे पैमाने पर कुटीर उद्योगों से किया जाता है, तू विभिन्न प्रकार के डिजाइन बनाकर उसे उत्पादक के गुणात्मक पहलू में वृद्धि हो जाती है। इन वस्तुओं को विदेशों में भेज कर अधिक विदेशी मुद्रा अर्जित करके देश के भुगतान संतुलन के घाटे को दूर किया जा सकता है। विदेश में हथकरघा से बने वस्त्रों की मांग प्राचीन काल से ही हो रही है, जिसकी पूर्ति निर्यात में वृद्धि से ही संभव है।
(11) स्थानीय साधनों का सदुपयोग (good use of local resources)
कुटीर एवं दस्तकारी उद्योगों के विकास से देश में उपलब्ध स्थानीय साधन जैसे- श्रम, कच्चा माल इत्यादि का पूर्ण उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार औद्योगिक विकास करने में देश की विदेशी निर्भरता कम हो जाएगी। प्राचीन ग्रामीण व्यवस्था की आत्मनिर्भरता, समृद्धि एवं कुशलता इन उद्योगों के विकास से हुई थी।
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दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग क्या है?
दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग दो प्रकार के छोटे उद्योग होते हैं, जिन्हें अकेले व्यक्ति या छोटे समूह के साथियों के द्वारा संचालित किया जाता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ; प्राचीन काल से ही भारतीय अर्थव्यवस्था में दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है।
कुटीर उद्योग के उदाहरण?
कुटीर उद्योग के उदाहरण - घरेलू खाद्य उत्पादन जैसे की पापड़, अचार, घरेलू नमकीन आदि। तथा बुनाई सिलाई कढ़ाई वस्त्र निर्माण आदि। हस्तशिल्प कला में चित्रकला नक्काशी आभूषण निर्माण आदि। यह सब कुटीर उद्योग के उदाहरण है।
कुटीर उद्योग का महत्व या विशेषताएं?
दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का महत्व - (1) कम पूंजी की आवश्यकता (2) आय का सामान वितरण (3) आधिकारिक रोजगार (4) औद्योगिक विकेंद्रीकरण (5) विशेषीकरण को बढ़ावा (6) कृषि पर जनसंख्या का भर काम करना (7) देश के प्रति रक्षा में सहायतआ (8) नैतिक मूल्यों को बढ़ावआ।
भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योग का महत्व?
भारतीय अर्थव्यवस्था में दस्तकारी एवं कुटीर उद्योग का प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इन उद्योगों के महत्व को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है—देश की अर्थव्यवस्था में यह उद्योग इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह धन के न्याय आयुक्त वितरण में बहुत सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं।
दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का वर्गीकरण कीजिए?
दस्तकारी एवं कुटीर उद्योगों का वर्गीकरण - (1) ग्रामीण जीवन निर्वाह उद्योग (2) ग्रामीण कलात्मक उद्योग (3) खेतिहर कला एवं कारीगरी (4) शहरी कला के उघोग
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