भारत-चीन सम्बन्ध | India-China relations

       भारत-चीन संबंध
India China relations

 प्राचीन काल से ही भारत चीन की घनिष्ठ संबंध रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत और चीन के संबंधों का विवरण भारतीय नेताओं की अदूरदर्शिता, आदर्शवादीता और बुद्धि हीनता और चीन के विश्वासघात से परिपूर्ण मिलता है। भारत की चीन संबंधी नीति बहुत विचित्र रही है क्योंकि भारत ने समझ लिया था कि चीन भारत का परम मित्र है तथा उसके भारत के साथ संबंध सांस्कृतिक तथा व्यापारिक हित में भ्रमण करते हैं। भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन चीन के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे। इस दृष्टि से भारत और चीन संबंधों का अध्ययन केवल मैत्री भाव तथा और असंलग्नता की नीति पर आधारित ना होकर मैत्री के उतार चढ़ाव पर भी आधारित है। 

(1) भारत का दृष्टिकोण 

चीन के साथ भारत प्रारंभ से ही मित्रता की इच्छा व्यक्त करता आ रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नेहरू जी ने यह कहा था कि चीन भारत से सदैव मैत्रीपूर्ण संबंध रखेगा। चीन में जब माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई तो भारत ने उसके साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों को और भी सुदृढ़ किया। भारत ने 1949 में चीन की साम्यवादी क्रांति का स्वागत किया। भारत ने चीन को मान्यता भी प्रदान की। भारत में संयुक्त राष्ट्र से चीन को मान्यता देने का भी अनुरोध किया। इस प्रकार चीन के प्रति भारत का दृष्टिकोण सदैव मैत्रीपूर्ण रहा है। 1947 से 1959 तक भारत तथा चीन के संबंध मैत्रीपूर्ण रहे हैं। इस संबंध के कारण निम्नलिखित हैं— 

  1. भारत द्वारा चीन को मान्यता प्रदान करना।
  2. कोरिया के प्रश्न पर सहयोग।
  3. पंचशील के सिद्धांतों में दोनों देशों की सहमति।
  4. चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्य दिलाने में भारत की भूमिका।

  इस प्रकार सन 1954 में भारत चीन में 8 वर्षीय व्यापारिक समझौता हुआ जिसके अंतर्गत भारत ने तिब्बत के अपने अधिकारों को चीन को सौंप दिया। भारत में तिब्बत में चीन की संप्रभुता को भी मान लिया। सन 1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भारत आए। उस समय संयुक्त विज्ञप्ति में पंचशील के सिद्धांतों पर बल दिया गया। अक्टूबर 1954 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीन की यात्रा की।

(2) चीन की प्रति भारत की भ्रांतिपूर्ण धारणाएं 

प्रारंभ में सोचा गया कि पंचशील सिद्धांत भारतीय कूटनीति की बहुत बड़ी सफलता है, परंतु वास्तव में यह भारत की कूटनीतिक पराजय थी। चीन के साथ संबंधों के निर्धारण में भारत की धारणाएं भ्रांतिपूर्ण निकली। चीन के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण को भारत ठीक प्रकार से समझ नहीं पाया। सत्य बात यह थी कि चीन इस विस्तार वादी नीति में विश्वास करता था। भूतकाल में चीन ने कभी आक्रमण नहीं किया था अतः भारत में यह सोचा कि चीन शांतिप्रिय देश है। परंतु बीसवीं शताब्दी में विज्ञान की प्रगति के कारण दुर्गम स्थानों पर भी आवागमन और अधिक सरल हो गया, जिसका चीन ने 1962 ईस्वी के आक्रमण में लाभ उठाया। भारत में तिब्बत चीन को सौंपकर अदूरदर्शिता का परिचय दिया। 

(3) भारत चीन सीमा विवाद की स्थिति

इसी समय भारत और चीन के मध्य सीमा को लेकर विवाद प्रारंभ हो गया। भारत अपने और चीन के मध्य मैक मोहन रेखा को सीमा रेखा मानता है परंतु चीन उसे स्वीकार नहीं करता है। चीन का कथन है कि इस रेखा को चीन की किसी सरकार ने मान्यता नहीं दी है। इसी आधार पर उसने भारत की प्रादेशिक सीमाओं में अक्साई- चिन सड़क को अधिकृत रूप से बनाकर भारत की बड़े भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया है। 1956 में चीन ने अपने दावे के समर्थन में एक मानचित्र प्रस्तुत किया जिसमें चीन ने भारत के बड़े भू-भाग को चीन का भाग दिखाया। भारत सरकार ने इस पर चीन के प्रति नाराजगी व्यक्त की तथा उसे पूर्णतया अमान्य घोषित कर दिया। इस दावे में लगभग 55000 वर्ग मील भूमि चीन के अधिकार क्षेत्र में है। विस्तार वादी चीन द्वारा उठाए गए कदम के विरुद्ध पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में यह कहा था,” ईशा की दो राष्ट्रों की योजना शस्त्र धारण करने की है तो यह संपूर्ण विश्व को प्रक्रमपित करने वाला होगा। यदि दुर्भाग्यवश इस स्थिति से बढ़ती है तो संपूर्ण राष्ट्र शस्त्र धारण करेगा और यह जीवन मरण का प्रश्न होगा।” भारत द्वारा इस दिशा में किए गए समस्त प्रयत्नों के बावजूद भी आज तक सीमा समस्या को सुलझाने में चीन ने भारत को उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा है। अतः पारस्परिक अविश्वास का वातावरण बना रहना स्वाभाविक है। 

(4) चीन का विश्वासघाती कदम उठाना

भारत ने अपनी शांतिपूर्ण नीति का प्रदर्शन करते हुए 10 मई 1962 को चीन के समक्ष सीमा संबंध प्रश्न का समाधान करने का प्रस्ताव रखा। परंतु चीन ने उसकी अवहेलना की और 11 जुलाई को भारत पर आक्रमण कर दिया। भारत युद्ध के लिए तैयार नहीं था परंतु स्थिति का अवलोकन करते हुए वह राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से युद्ध के लिए मैदान में उतर गया। 12 जुलाई को चीन ने लद्दाख में बलवान नदी की घाटी में भारतीय चौकियों को अपने नियंत्रण में ले लिया। 8 सितंबर को चीनी सेनाओं ने मैक मोहन रेखा पार करके भारतीय सीमा में प्रवेश किया। 20 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने पूर्वोत्तर सीमांत क्षेत्र तथा लद्दाख के मोर्चे पर एक साथ बड़े पैमाने पर आक्रमण कर दिया। 21 नवंबर 1962 कोचीन अचानक अपनी ओर से एक पक्षी युद्ध विराम की घोषणा करी और युद्ध समाप्त हो गया।

(5) भारत के प्रति उपेक्षा पूर्ण दृष्टिकोण 

सन 1965 में भारत तथा पाकिस्तान के मध्य युद्ध प्रारंभ हुआ तब चीन ने पाकिस्तान के समर्थन में अनेक बातें कहीं। उसने भारत को आक्रमणकारी घोषित किया। चीन ने भारत को एक चेतावनी भी दी कि वह सिक्किम की सीमा पर निर्माण कार्य को स्थगित कर दें। भारत ने चीन की इस चेतावनी की चिंता नहीं की क्योंकि भारत का पक्ष न्याय मुक्त था। अंतर तो है चीन ने अपनी चेतावनी के प्रति चुप्पी साध ली। 1971 ईस्वी में भी चीन ने उन्हें पुरानी बातों को पुनः दोहराया और अमेरिका के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत विरोधी प्रस्ताव पारित करके भारत को आक्रमणकारी घोषित किया।

     सन् 1999 में भारत पाक के मध्य उत्पन्न कारगिल समस्या पर चीन ने भारत की सैनिक कार्यवाही का समर्थन किया। भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने जून 1999 ईस्वी में चीन की यात्रा की। चीनी राष्ट्रपति के निमंत्रण पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायण 28 मई से 3 मई, 2000 ईस्वी तक चीन की यात्रा पर गए। भारत के राष्ट्रपति ने चीन के राष्ट्रपति से अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद, संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुधार, सुरक्षा परिषद के विस्तार, परमाणु परीक्षण मुद्दों सहित अन्य विषयों पर विस्तृत वार्ता की। चीनी प्रधानमंत्री चूर्ण जी के साथ संपन्न वार्ता में राजनीतिक तथा आर्थिक सहयोग बढ़ाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई ‌। चीन एशिया महाद्वीप में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है, इस कार्य में वह भारत को सबसे बड़ा बाधक मानता है।

निष्कर्ष

 इसलिए वह भारत को कमजोर राष्ट्रों के रुप में देखना चाहता है। स्थाई सदस्य के रूप में दावेदारी का समर्थन कर रहे हैं, तब चीन अमेरिका के स्वर में स्वर मिलाकर भारत की दावेदारी का विरोध कर रहा है ‌

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