गुप्तोत्तर काल (गुप्त काल)
गुप्तोत्तर काल में समाज
(1) सामाजिक संरचना
गुप्त शासकों के शासनकाल में समाज वैदिक युग से चली आई वर्ण -व्यवस्था पर आधारित थी। सर्वोच्च वर्ण- ब्राह्मणों का स्वीकार किया जाता था। उनके छह प्रकार के कर्तव्य थे, जो विद्या ग्रहण करना, छात्रों का अध्यापन, दान लेना, दान देना, यज्ञ करना तथा यज्ञ कराना थे। पुरोहित भी ब्राह्मण ही होता था। वह राज्य के सलाहकार तथा राष्ट्र के मंगल के लिए देवी देवताओं की उपासना में लगे रहते थे। युद्ध भूमि में वह शासक के साथ रहता था। वर्ण व्यवस्था के आधार पर समाज में द्वितीय स्थान स्त्रियों को प्राप्त था। यह व्यक्ति अधिकांशतः सैनिक सेवा करते थे। धन संपन्न क्षत्रिय और सामान्य विद्या प्राप्त करते, दान देते और यज्ञ कर आते थे।
तृतीय वर्ग वैश्य का था। उनका प्रधान कार्य जो होता था वह कृषि करना था। इसी वर्ग के अधिकांश व्यक्ति धनी होते थे। क्राई हो दान देते और दर्जनों के लिए औषध्यालय एवं सदावर्ती क्षेत्रों की स्थापना कराते थे। अंतिम चतुर्थ वन शूद्रों का था। अपेक्षाकृत इस युग में सूत्रों की दशा अच्छी थी। वह व्यापारी, व्यवसायी, शिल्पी एवं कृषक भी बन सकते थे। इस युग में कुछ सूत्र सैनिक तथा सैना के पदाधिकारी भी थे। इनका प्रधान कार्य प्रथम तीन वर्गों की सेवा करना था। चांडाल ओं का स्थान वर्षों से अदम समझा जाता था। वह नगरों के बाहर रहते थे। नगर से आते समय लकड़ी बजाते चलते थे, जिससे लोग समझ जाएग चांडाल आ रहे हैं और उनके स्पर्श से बचकर चलें। यह लोग मछली मारकर शिकार करके तथा मांस बेच कर अपना जीवन निर्वाह करते थे। मरघट की रखवाली तथा सवों का कफन प्राप्त करना भी इसी जाति का कार्य था। इतना होते हुए भी वर्ण व्यवस्था के बंधन कठोर नहीं थे। एक वर्ग में उत्पन्न व्यक्ति दूसरे वर्ण का कार्य भी कर सकता था। इस प्रकार व्यवसाय परिवर्तन करने की अनुमति एवं सुविधा होने से समाज में केंद्रीय एकता और पर्याप्त गतिशीलता थी।
(2) गुप्तोत्तर काल में स्त्रियों की दशा
गुप्त काल में पर्दा प्रथा का प्रचार नहीं था। स्त्रियों को उत्सव में भाग लेने की स्वतंत्रता थी। फिर भी उस स्कूल और राजवंश की महिलाओं अपने वस्त्रों के ऊपर बाहर जाते समय चादर ओढ़ कर दती थी। समृद्ध घरानों में बालिकाओं को साहित्य और संस्कृति का ज्ञान कराया था। उस काल की कुछ कविताओं और लेखिकाओं के रूप में भट्टारिका, शीला आदि के नाम प्रसिद्ध है। उस समय बाल विवाह की प्रथा प्रचलित हो गई थी। इसके कारण स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा का द्वार सामान्य रूप से बंद हो गया था। धर्म शास्त्रों और स्मृतियों के आधार पर कन्या के रजस्वला होने से पूर्व ही उसका विवाह कर दिया जाता था। इसी कारण से विवाह के विषय में उनका मत नहीं लिया जाता था। फिर भी कहीं-कहीं कन्याओं का स्वयंवर भी होता था। उस काल में विधवा विवाह के उदाहरण भी मिल जाते हैं, जैसे उदाहरण के तौर पर चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने अग्रज राम गुप्त की पत्नी ध्रुवस्वामिनी के साथ विवाह किया था। उच्च वंशीय, समृद्ध परिवारों एवं राजपूतों में बहु विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी। सती होने की प्रथा का भी प्रचार इस युग में होने लगा था। इसी युग में सती प्रथा का सर्वप्रथम ऐतिहासिक साक्ष्य 510 ई० के मध्यपदेश से प्राप्त अभिलेख से मिलता है। महाकवि कालिदास, भास और शुद्रक द्वारा सती प्रथा का अपने नाटकों में उल्लेख किया गया है। दक्षिणी भारत में स्त्रियों ग्राम मुखिया का कार्य भी करती थी तथा नृत्य संगीत जैसे आदि कलाओं में अपनी प्रवीणता का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन भी करती थी। ऐसा उस काल के अभिलेखों में अंकित पाया जाता है। कुछ नारियों के तपस्विनी होने का भी उल्लेख आता है, जिससे यह प्रतीत होता है कि वह घर गृहस्ती के विवादों से तंग आकर ही ऐसा करते होंगे।
(3) समाज में वेश्याओं की स्थिति
गुप्तकालीन समाज में वेश्याओं की उपस्थिति का विवरण मिलता है। वे सदा सुहागन और सार्वजनिक स्त्रियां कहलाते थी। वे कामशास्त्र और संगीत व नृत्य आदि कलाओं में अत्यधिक निपुण स्वीकार की जाती थी। फिर भी समाज में उन्हें ऊंची दृष्टि से ना देख कर केवल मनोरंजन का साधन समझा जाता था। जिससे यह प्रतीत होता है कि कुछ गणिका ओं को समाज में आदर मान भी प्राप्त था।
(4) गुप्तकालीन वस्त्र एवं आभूषण
उस काल में पुरुष सिर पर पगड़ी, कंधे पर चादर तथा कमर के नीचे धोती बांधते थे। शासक अपने सिर पर पगड़ी के बजाय मुकुट धारण करते थे। स्त्रियां पेटीकोट पहन कर उसके ऊपर साड़ी बांधती थी तथा चोली भी पहनती थी। उस युग में छीट के वस्त्रों का भी स्त्रियों में पर्याप्त प्रचार था। ऊनी और रेशमी वस्त्र अधिकता के साथ प्रयोग किए जाते थे। जनता साधारण सूती वस्तुओ का उपयोग करते थे। चीन देश से रेशमी कपड़ा आयात किया जाता था। उसे चीनाशुक कहा जाता था। ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार के वस्त्र पहने जाते थे। उस काल की स्त्रियों और पुरुषों दोनों की आभूषणों के प्रयोग में अधिक रूचि थी। इसी विषय में रतिभानु सिंह नाहर ने भी गुप्त काल की आभूषण प्रियता का वर्णन करते हुए कहा है— “स्त्रियों के आभूषण विविध प्रकार की तथा नेत्रों को भले लगने वाले होते थे। सोना तथा मोतियों के हार ओं का सौंदर्य अद्भुत होता था। पुरुषों में अंगूठियां हार और कुंडल धारण करना शोभा और सम्मान का कार्य माना जाता था। वेशभूषा को भी अधिक सुंदर आकर्षक और बहुमूल्य बनाने के लिए वस्त्रों में रत्न लगाए जाते थे और सोने चांदी के तारों का कसीदा होता था।
(5) गुप्तोत्तर काल में भोजन
गुप्त काल में मांसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन प्रचलित थे। बौद्ध धर्म के पर्याप्त प्रचार के कारण मांस भक्षण एवं मदिरापान को समाज में निंदनीय स्वीकार किया जाने लगा था। फिर भी उत्सव एवं तीज त्योहारों के समय मांस का प्रयोग किया जाता था। साधारण त्योहार भोजन और खानपान में शुद्धता, पवित्रता और सात्विकता थी। भोजन के उपरांत पान खाने की प्रथा भी प्रचलित थी। क्षत्रिय और निम्न श्रेणी के लोगों में मध्य पान प्रचलित था।
(6) गुप्तोत्तर काल में विवाह प्रथा
गुप्त काल में जाति प्रथा के बंधनों में अधिक कठोरता उत्पन्न नहीं हुई थी। अतः भिन्न-भिन्न जातियों, वंशु और विभिन्न संप्रदायों का अनुकरण करने वाले व्यक्तियों में विवाह होते रहते थे। स्वर्ण विवाह का अत्यधिक प्रसार था। विदेशी व्यक्ति हिंदू धर्म स्वीकार करके विवाह संबंध द्वारा केवल एक दो पीढ़ियों में ही हिंदू समाज में पूर्ण रुप से संयुक्त हो जाते थे। गुप्त काल में सिंह और सातवाहन काल के आठों प्रकार के विवाह प्रचलित थे। जिनमें से प्रथम चार प्रकार के विवाह— दैव विवाह, प्रजापत्य विवाह, ब्रह्मा विवाह और आर्ष विवाह के नाम से प्रसिद्ध थे, और उत्तम समझे जाते थे। इसके अतिरिक्त गांधर्व, असुर, राक्षस और पैसाच विवाह को समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता था। महाकवि कालिदास द्वारा अपने नाटक “अभिज्ञान शाकुंतलम्” में लिखा गया था कि महाराजा दुष्यंत ने कण्व ऋषिकेश तपोवन से शकुंतला के साथ गांधर्व विवाह किया था। इससे यह प्रतीत होता है कि गांधर्व विवाह भी समाज द्वारा मान्य था। उस काल में यही प्रतीत होता है कि दहेज प्रथा प्रचलित नहीं थी।
(7) गुप्तोत्तर काल में मनोरंजन के साधन
गृहों में विवाहित स्त्री -पुरुष चौपड़ और शतरंज खेलते थे। आखेट करना शासकों, राजकुमारों और क्षत्रियों को अधिक प्रिय था। समाज में मुर्गा और अन्य पशुओं की लड़ाई देखना भी मनोरंजन का साधन माना जाता था। नाटक, मेले, तमाशे प्रायः होते रहते थे, जिन्हें समाज के स्त्री परुष और बालक और बालिकाएं प्रसन्नता के साथ भाग लेते थे। महिलाएं बागों में गेट खेलती थी। नगर में नाटक ग्रहों और संगीत भवन भी होते थे। शुद्रक ने अपने मृच्छकटिक नाटक में जुआ खेलने, भेजो और हाथियों की लड़ाई को उस काल का प्रमुख मनोरंजन का साधन स्वीकार किया है। कालिदास द्वारा भी रघुवंश में जुआ खेलने का उल्लेख किया गया। लोग धार्मिक उत्सवों और रथ यात्राओं में अधिक आनंद लेते थे। चीनी यात्री बाह्यन ने पाटलिपुत्र नगर का वर्णन करते हुए वहां प्रतिवर्ष निकाली जाने वाली रथ यात्रा का वर्णन करते हुए यह लिखा है कि- “यह यात्रा प्रति वर्ष द्वितीय मास की अष्टमी को निकाली जाती थी। रात को सजा कर उसमें महात्मा बुद्ध की मूर्ति रखी जाती थी और उसके पास बोधिसत्व खड़ा किया जाता था। रात के समक्ष गाना बजाना और नाचना होता रहता था।”
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