बेंथम के राजनीतिक विचारों की व्याख्या तथा आलोचना
बेंथम के राजनीतिक विचार
आधुनिक राजनीतिक विचारकों के मध्यम का अपना अलग स्थान है। उसके राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं —
(1) बेन्थम का कानून संबंधी धारणा
बेन्थम का विचार है कि, “कानून संप्रभु की इच्छा का आदेशों की तरह अभिव्यक्ति करण है जिससे राजनीतिक समाज के सदस्य उसका स्वाभाविक पालन करते हैं।” बेंथम यह मानता है कि कानून एक आदेश, एक प्रतिबंध है इसलिए स्वतंत्रता का शत्रु है। बेंथम ने उपयोगिता वादी सिद्धांत के अनुसार ही विधि निर्माण को सलाह दी। उसका विचार है कि प्रत्येक कानून को सर्वाधिक लोगों की सर्वाधिक कल्याण के उद्देश्य से ही बनाया जाना चाहिए। जो कानून अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख प्रदान नहीं करता है वह व्यर्थ है। कानून की चार बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए—
(1) आजीविका
(2) पर्याप्ता
(3) सहानुभूति
(4) सुरक्षा
बेन्थम ने तत्कालीन कानूनों की आलोचना की और कहा कि कानून जनता की आशा आकांक्षा और विवेक बुद्धि के विपरीत नहीं होने चाहिए।
(2) बेन्थम की न्याय व्यवस्था
बेंथम वास्तव में न्याय व्यवस्था का सुधाकरण था और उसकी इच्छा दलित वर्ग के लोगों को सुखी देखने की थी। बेंथम ने तत्कालीन ब्रिटेन की न्याय व्यवस्था की आलोचना की और कहा कि उसमें से निरर्थक विधियों को हटा देना चाहिए। न्याय व्यवस्था का यह भी दोष है कि उसमें वादी और प्रतिवादी दोनों के लिए बाधाएं खड़ी की जाती हैं, न्याय बहुत महंगा है और बेचा जाता है। जिस व्यक्ति के पास धन नहीं है वह न्याय से वंचित हो जाता है। उसने यह भी कहा कि न्यायालय की कार्यविधि को आसान बनाया जाना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपना वकील स्वयं बनना चाहिए।
(3) बेंथम के संप्रभुता संबंधी विचार
बेन्थम राज्य की संप्रभुता का पक्ष पाती है। बहुत संप्रभुता को निरपेक्ष एवं अपरिमित मानता है। उसका विचार है कि राज्य अपनी संप्रभुता से ही व्यक्तियों को अधिकतम सुख हेतु कार्य करने के लिए पुरस्कृत अथवा दंडित करता है। उसे राज्य की अनंत शक्ति की उच्चतम सत्ता में विश्वास नहीं है और वह राज्य की विधि- निर्माण की क्षमता को ही संप्रभुता मानता है। बेंथम का विश्वास है कि संप्रभुता पर कोई सीमा नहीं लगा सकता, यह कहना उचित नहीं है। यदि राज्य का विशाल जनमत किसी विधि का विरोध करता है तो संप्रभुता का यह कर्तव्य है कि उसे कानून का रूप न दें। वह राज्य की सर्वोच्च शक्ति पर यूं ही अंकुश लगाता है कि वह अधिकतम सुख की ही चिंता करें। इस प्रकार बेंथम संप्रभुता इस दृष्टि से असीमित अधिकार भी देता है।
(4) बेन्थम के दण्ड संबंधी विचार
बेन्थम के समय में इंग्लैंड की दंड- व्यवस्था भी अत्यंत दोषपूर्ण थी। छोटे-छोटे अपराधों पर मृत्युदंड दिया जाता था और दंड व्यवस्था का कोई निश्चित रूप नहीं था। बेंथम ने दंड व्यवस्था में सुधार के लिए भी अपने विचार प्रस्तुत किए। उसने कहा कि दंड की मात्रा अपराध के अनुपात में होनी चाहिए। दंड समान भाव से दिया जाना चाहिए और एक से अपराध के लिए समान दंड की व्यवस्था की जानी चाहिए। दंड का उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिए परंतु साथ ही दंड में अपराधी को इतनी पीड़ा अवश्य होनी चाहिए कि वह अपराध की पुनरावृत्ति न कर सकें। दंड जनमत के अनुकूल होना चाहिए और इससे अपराधी के प्रति सहानुभूति का वातावरण नहीं उत्पन्न होने नहीं देना चाहिए। इस प्रकार बेंथम की दंड व्यवस्था रोक सिद्धांत और सुधारात्मक सिद्धांत का सम्मिश्रण है।
(5) बेन्थम के अधिकार संबंधी विचार
अधिकारों की व्याख्या करते हुए वेतन न लिखा है, “वे मनुष्य के सुखमय जीवन के नियम उप नियम हैं जिन्हें राज्य के कानूनों द्वारा मान्यता दे दी गई हैं।” इससे यह स्पष्ट है कि बेंथम कानून का समस्त अधिकारों के अस्तित्व में ही विश्वास करता है। यह प्राकृतिक अधिकार के सिद्धांत को ठुकरा ता है और उसे केवल व्यर्थ की बकवास कहता है। परंतु प्राकृतिक अधिकार का तिरस्कार करते हुए भी वह निजी संपत्ति के अधिकार का तिरस्कार नहीं करता। सामान्य उपयोगिता के आधार पर उसने निजी संपत्ति का समर्थन किया है। उसने दो प्रकार के अधिकारों का उल्लेख किया है—
1. वैधानिक अधिकार
2. नैतिक अधिकार
बेन्थम ने अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी उल्लेख किया है क्योंकि उसके अनुसार कर्तव्य रहित अधिकार निर्जीव है। बेंथम यह मानता है कि कर्तव्य और अधिकारियों का अन्योन्याश्रित संबंध है।
(6) प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांतों का खंडन
बेंथम एक व्यवहारिक राजनीतिक था तथा कल्पना वादी सिद्धांतों में विश्वास नहीं करता था उसने प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का खंडन किया और उन्हें मूर्खतापूर्ण बतलाया। उसने कहा कि राज्य ही संपूर्ण अधिकारों का स्रोत है और सभी अधिकार राज्य के अंतर्गत ही संभव है।
(7) समझौतावादी सिद्धांत का खंडन
बेन्थम ने समझौता वादी सिद्धांतों को मान्यता प्रदान नहीं की। उसने कहा कि व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन इसलिए नहीं करता कि राज्य की उत्पत्ति के लिए उसके पूर्वजों ने समझौता किया बल्कि उसकी आज्ञा का पालन इसलिए करता है क्योंकि उसका ऐसा करना उपयोगी है।
बेंथम के राजनीतिक विचारों की आलोचना
बेन्थम के राजनीतिक विचारों की आलोचना करते हुए निम्नलिखित बातें कहीं गई है—
(1) बेंथम का उपयोगिता वादी सिद्धांत पूर्ण रूप से भौतिकवादी प्रतीत होता है जिसको अपनाने में व्यक्ति और समाज दोनों की आत्मा मर जाएगी।
(2) बेन्थम ने सुख-दुख के व्यवहारिक अंतर को बतलाने के लिए शारीरिक रचना, चरित्र, शिक्षा, लिंग आदि 32 लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण किया है।
(4) मिथुन की विचारों की आलोचना यह कहकर की जाती है कि उसके अनुसार केवल राज्य में उन्हीं विधियों का निर्माण हो सकता है जिनके द्वारा साधारण स्वार्थ की पूर्ति हो सके। उसकी विचार स्वार्थ की पूर्ति हो सके। उसके विचार स्वार्थ की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं और यदि उसके विचारों को ज्यों का त्यों अपना लिया जाय तो पूंजीवाद को बढ़ावा मिलेगा।
(5) बेंथम कि राज्य संबंधी धारणा इस दृष्टि से भी अनुचित बताई जाती है कि उसमें सामवयी और समाजवादी सिद्धांतों की उपेक्षा हुई है।
(6) बेन्थम के उपयोगितावाद के नाम पर पूंजीवाद और सनातनी शिथिलता का समर्थन किया जा सकता है। बेन्थम की अस्पष्टता, मूकवृत्ति तथा संदिग्ध व्याख्या के कारण व्यवहारी क्षेत्र में अनुचित तरीकों का प्रयोग संभव हो जाता है।
(7) बेंथम की आलोचना यह कहकर भी की जाती है कि उसने बांड्स, लॉक, ह्यूम, और रिचर्ड हाथी की विचारों की खिचड़ी प्रस्तुत की है।
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