आर्थिक प्रवाह का तात्पर्य, कारण एवं प्रभाव या परिणाम

आर्थिक प्रवाह (Economic Flow)

आर्थिक प्रवाह से तात्पर्य; आर्थिक प्रभाव का आशय उस धन से है जो भारत से इंग्लैंड भेजा जाता था। किंतु उसके बदले में भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं होता था। देश से दो प्रकार से धन बाहर जाता था— मुद्रा के रूप में या पदार्थों के रूप में। यह धन निष्कासन धातु मुद्रा के रूप में कम और वस्तुओं के निर्यात व्यापार के रूप में अधिक होता था। 1757 से प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात अंग्रेजी कंपनी ने शासन के अधिकार प्राप्त कर लिए और उनका अनुचित लाभ उठाकर भारत की संपत्ति का शोषण करना आरंभ कर दिया। परिणाम यह हुआ कि भारत के राष्ट्रीय धन का निष्कासन नियमित रूप से इंग्लैंड की ओर होने लगा। 

आर्थिक प्रवाह का तात्पर्य, कारण एवं प्रभाव या परिणाम

आर्थिक प्रवाह के कारण 

(1) दादाभाई नौरोजी के अनुसार, धन निष्कासन का मुख्य कारण भारत पर विदेशी शासन का स्थापित होना था। भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के पश्चात अंग्रेजों ने अनुचित उपायों द्वारा भारत के आर्थिक साधनों का

शोषण करना शुरू कर दिया।

(2) भारत एक धन -संपद देश था। अतः अंग्रेज भारत का धन प्राप्त करके अपने देश को मालामाल करना चाहते थे।

(3) अंग्रेजी शासन और अंग्रेजी सेना बहुत महंगी थी। बताओ इन के खर्चे की पूर्ति के लिए भारतीय धन का निष्कासन करना आवश्यक था।

(4) भारत में अंग्रेजी राज्य का उद्देश्य और समझा जाता था कि भारतीय जनता की पूंजी की सहायता से इंग्लैंड की जनता और सरकार के हितों की पूर्ति की जाए। उनको धन संपन्न बनाए जाए, उनकी शक्ति में वृद्धि की जाए और उनके साम्राज्य का विस्तार किया जाए। इसके लिए यह आवश्यक समझा गया कि भारत का धन और उसका कच्चा माल अधिक अधिक मात्रा में इंग्लैंड भेजा जाए और अंग्रेज व्यापारियों, उद्योगपतियों और प्रशासकों का मुनाफा और खर्च का बोझ भारतवासियों पर डाल दिया जाए। 

आर्थिक प्रवाह के प्रभाव या परिणाम

(1) कृषि उद्योग और व्यापार का विनाश 

धन प्रभाव की वजह से भारतीय कृषि उद्योग और व्यापार चौपट हो गया। किसानों और मजदूरों की दशा सर्वाधिक सोचनीय हो गई। अनेक किसानों को अपनी जमीनें बेचनी पड़ी और जीवन निर्वाह हेतु मजदूरी करनी पड़ी। उनकी दशा दयनीय हो गई और वे कर्ज के बोझ से दब गए।

(2) माल का अधिक निर्यात किया जाना एवं जीवन स्तर गिर जाना 

इस धन निष्कासन का परिणाम इस बात से सरलता से समझ नेहा सकता है कि भारत को अपनी राष्ट्रीय आय में से अप्रतिदत्त निर्यात की राशि प्रतिवर्ष निकालनी पड़ती थी। धन की उत्तरोत्तर बढ़ने वाली राशि को पूरा करने के लिए अधिक निर्यात करना पड़ता था। फल स्वरूप देश में जीवन स्तर निरंतर कैसा गया।

(3) व्यापारी शर्तों का भारत के प्रतिकूल रहना

धन के बाह्य प्रवाह उन परिस्थितियों को प्रबल बना दिया, जिनमें व्यापार की शर्तें भारत के विपक्ष में रहने लगी। भारत को अपने निर्यात माल का मूल्य कम रखना पड़ा, जबकि आयात- माल पर अधिक भुगतान किया गया। भारत के परंपरागत उद्योग सौदेबाजी (Bargaining Capacity) की अपनी शक्ति को पूरी तरह खो बैठे। अतः विदेशी व्यापारियों और उनके एजेंटों के हाथों उन्हें बहुत सस्ते दामों में अपनी वस्तुएं बेचनी पड़ी।

(4) नैतिक निर्गम का जन्म 

अर्थिंग निर्गम ने नैतिक निर्गम को विकसित किया। दादा भई नौरोजी नीच स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि— “देश में अंग्रेज अधिकारियों को अधिकाधिक नौकरियां दी गई, जिन का दूसरा अर्थ यह था कि उतनी ही संख्या में भारतीय लोग नौकरी से वंचित रह जाते थे। साथ ही यह भी हुआ कि ना भारतीय धन बचा सकते थे और ना उसे पूंजी के रूप में ही प्रयुक्त कर सकते थे। यही नहीं अंग्रेज अधिकारी और तकनीशियन ऊंचे ऊंचे पदों से विनृत्त हो जब इंग्लैंड लौटते थे, तो अपने साथ अपना राजनीतिक, प्रशासनिक और तकनीकी अनुभव भी ले जाते थे। ज्ञान और अनुभव का यह निकाल एक प्रकार का नैतिक निर्गम था, जिसने भारत को पतन की ओर धकेला।”

(5) पूंजी का संचयन ना हो पाना 

आर्थिक साधनों के निर्गम के कारण देश में पूंजी के संचई क गहरा आघात लगा और देश की दरिद्रता निरंतर बढ़ती चली गई। देश के क्षीण होते गई आर्थिक साधना पर विदेशी नौकरशाही का भारी खर्च अधिकाधिक लादा जाता रहा है। और इस प्रकार यह धन का प्रवाह भारत के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। जनता की बचत शक्ति लगभग पूर्णतः तोहर नष्ट हो गई (क्रय शक्ति भी कम हुई)। मोटे रूप से आर्थिक प्रवाह ने लाभ और बचत का पंजीकरण करना असंभव बना दिया। फलत: भारत औद्योगिक क्षेत्र में पिछड़ गया। 

(6) विदेशी पूंजी का प्रवश और देश का शोषण 

भारत को पूंजी संचय की दृष्टि से अक्षम बनाया गया, जबकि दूसरी ओर विदेशी पूंजी को भारत में एकाधिकार लाभ मिलते गए। भारत से जोधन इंग्लैंड पहुंचा, वह धन वापस विदेशी पूंजी के रूप में भारत लौट आया, जिसने भारत का शोषण किया।

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