जैन धर्म का पतन
जैन धर्म का पतन; छठी सदी ई० पू० विश्व की धार्मिक परंपराओं में उथल पुथल की सदी थी। भारत में भी बहुत सारे नास्तिक संप्रदायों का उदय हो रहा था। इनमें से जैन और बौद्ध धर्म ही उत्तरजीवी सिद्ध हो सके। दोनों के प्रवर्तक राजघराने से संबंद्ध थे। समान सामाजिक धार्मिक परिवेश में अस्तित्व में आने के बावजूद जैन धर्म दिनों दिन सिकुड़ता चला गया। यहां तक कि जैन धर्म का मूल बिहार में भी सीमित प्रभाव दिखता है।
जैन धर्म के पतन के कारण
जैन धर्म के पतन के कारण जैन धर्म शीघ्र ही सीमित होकर लुप्त प्राय हो गया। समकालीन बौद्ध धर्म की भांति ना तो इसका विदेशों में प्रसार (फैलाव) हो सका और न ही भारत में इसका स्थान सुदृढ़ (बहुत मजबूत) हो सका।
(1) जैन धर्म के कठोर सिद्धांत
जैन धर्म के पतन के मूल कारण में जैन धर्म की स्वयं की विशेषताएं ही थी। काया क्लेश, प्रतीत्यसमुत्पाद, दिगंबरता और अहिंसा आदि के परिपालन में कठोरता ने जैन धर्म को भारत और मूलतः बिहार में ही लोकप्रिय बना दिया। जैन धर्म के अनुयायियों के लिए जरा सी भी विलासिता और भौतिकता के लिए कोई स्थान नहीं था। इसके अतिरिक्त अहिंसा के व्रत का पालन तो आती ही था और यह भी किसी प्रकार से पालन योग्य नहीं है। भूमि को साफ करके चलना और ऐसा कोई भोजन न करना जिससे जीव हत्या हो आदि। अनार्थिक क्रियाओं को ही अधिक महत्व प्रदान करती थी। जब जीविकोपार्जन ही नहीं होगा तो जीवन संभव नहीं है।
(2) अन्य धर्म का उत्थान
वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें समय के साथ अनुकूलन करने की विलक्षण क्षमता थी। अतः जैन धर्म के प्रसार से हिंदू धर्म ने अपनी कमियों को दूर करना आरंभ कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप जैन धर्म की मान्यता का क्षेत्र सीमित होने लगा। इतना ही नहीं जैन धर्म ने हिंदू धर्म के अनेक परंपराओं तथा मान्यताओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया। दक्षिण भारत के चोल राजाओं ने मधुरा के जैन मंदिरों में शिवओपासना प्रारंभ कर दी क्योंकि वहां शैल धर्म चरमोत्कर्ष पर था। रामानुज द्वारा मैसूर राज्य में वैष्णव धर्म का प्रचार किए जाने से भी जैन धर्म के विस्तार और प्रचार में अवरोध उत्पन्न होने लगा।
(3) जनसाधारण से संबंध विच्छेद
जैन धर्म को अपनी चरम अवस्था में अनेक राजाओं तथा धनी व्यक्तियों का संरक्षण और सहयोग प्राप्त था। अतः जैन धर्म उनका अनुग्रही बन गया और जनसाधारण की उपेक्षा करने लगा। जनसाधारण से संबंध विच्छेद करना ही जैन धर्म की अल्पकालीनता तथा पतन का प्रमुख कारण बना।
(4) धर्म प्रचारकों के उत्साह में कमी
मध्यकाल आने तक जैन धर्म की पचारकों का उत्साह ठंडा पड़ गया। उनकी संख्या और विद्धता मैं भी कमी आने लगी। महावीर स्वामी के उपरांत ऐसा कोई भी महान धार्मिक नेता नहीं हुआ, जो जैन धर्म के प्रचारकों को संगठित कर पाता। उत्साह की कमी के कारण जैन धर्म का शिथिल होना स्वाभाविक था।
(5) शासकीय सहायता में कमी
किसी भी मत या संप्रदाय के प्रचार प्रसार के लिए यह अत्यावश्यक होता है कि उसको किसी शक्तिशाली राजा द्वारा आज की धर्म बनाया जाए। इसके बिना किसी तरह का सर्व सुलभ प्रचार-प्रसार संभव नहीं है। यद्यपि गौतम बुद्ध और महावीर दोनों राजघराने से संबंध थे, किंतु उन दोनों की मृत्यु के बाद कोई भी अन्य शक्तिशाली शासक ना हुआ जिसने जैन धर्म का प्रसार किया हो। इसके अतिरिक्त कोई भी सम्राट ऐसा नहीं हुआ जिसने अशोक के भांति बौद्ध धर्म का प्रसार देश के बाहर भी किया हो।
(6) बुराइयों का प्रारंभ
समय के साथ-साथ जैन धर्म में बहुत से बुराइयां आ गई। कालांतर (नियत समय के बाद का समय) में यह एक शुद्ध एवं पवित्र धर्म नहीं रह गया। इसके अधिकतर उत्साही धर्माचार्य निष्क्रिय हो गई।
(7) अनेक संप्रदायों में विभाजित
जनमत बार-बार खंडित होकर अनेक संप्रदायिक विभाजित हो गया था। क्योंकि पादरू नादान महावीर स्वामी की मध्य जो वैचारिक मतभेद थे, उन मतभेदों ने बाद में इन संप्रदायों को खंडित कर दिया।
(8) मतभेदों का जन्म
पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के मध्य मतभेद केवल वैचारिक थे। जैन धर्म के मूल सिद्धांतों में उनकी समान आस्था थी। लेकिन कालांतर मैं जैन विद्वानों ने पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी की मतों का विवेचन करके अनेक मतभेदों को जन्म दिया। फल स्वरुप जैन धर्म दो प्रमुख संप्रदायों में बढ़ गया। यह संप्रदाय श्वेतांबर और दिगंबर थे। धीरे-धीरे इन संप्रदायों के भी बहुत से उप संप्रदाय बन गए। इस प्रकार जैन धर्म की एकता नष्ट होने लगी।
(9) बाहरी आघात
विदेशी आक्रांता, पहले शक और हूण तथा बाद में मुस्लिमों से इसे भारी आघात हुआ। अंत में हिंदू धर्म का पुनरुत्थान जैन धर्म के साथ घातक सिद्ध हुआ।
(10) अहिंसा रुप
जैन धर्म अहिंसा का पुजारी था। जैन धर्म में हिंसा को कोई भी स्थान नहीं था, जैन धर्म जिस रास्ते पर भी चलेंगे उससे पहले साफ करेंगे फिर उस पर चलते हैं। लेकिन ज्यादातर लोग हमेशा अहिंसात्मक पद पर नहीं चल सकते हैं जिस कारण भी जैन धर्म की अनुयायियों मैं निरंतर गिरावट हुई।
निष्कर्ष — इस प्रकार अनेकों विशेषताओं के होने के बावजूद यह धर्म लोकप्रिय नहीं हो सका। इस धर्म की शिक्षाएं बाद के प्रत्येक मत के लिए आदर्श बनीं किंतु सभी ने इनमें थोड़ी छूट प्रदान की। बौद्ध धर्म में भी यही शिक्षाएं थी, किंतु इसमें मतानी आयु के लिए नियमों की इतनी कठोरता न थी। तथा समसामयिक कारणों के फल स्वरुप जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या में कमी आने लगी और हिंदू धर्म के पुनरुत्थान के साथ ही जैन धर्म की व्यवहारिक मौलिकता पूर्ण रूप से विलुप्त हो गई। आज हम हिंदू और जैन धर्म की अनेक परंपराओं में भेद करने में कठिनाई अनुभव करते हैं।
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