शुंग कालीन समाज और संस्कृति की विशेषताएँ

    शुंग कालीन समाज और संस्कृति 

 शुंग कालीन समाज और संस्कृति ; मौर्य शासन के पतन के बाद शुंग वंश की शुरुआत हुई थी। यह कहा जाता है कि अंतिम मौर्य सम्राट वृहदथ की हत्या करके शुंग वंश की स्थापना की। शुंग वंश का शासन 186 ई० पू० से 73 ई० पू० तक रहा। मौर्य शासन काल के अंतिम चरण में अव्यवस्था और पतन दृष्टिगोचर होने लगा था। शुंग शासन काल में फिर उसके दिशा प्रगति की ओर बढ़ गई। संस्कृति और कला के क्षेत्र में प्रगति की दृष्टि से इस काल का विशेष महत्व रहा है। शुंग शासन काल में शासन व्यवस्था, समाज व्यवस्था, धार्मिक व्यवस्था, संस्कृति व्यवस्था और कला की विशेषताएं  

शुंग कालीन समाज और संस्कृति की विशेषताएँ

(1) शासन व्यवस्था 

शुंग- काल की शासन व्यवस्था मौर्य शासकों की भांति ही थी। इस युग में कुछ थोड़े से परिवर्तन करके मौर्य शासन प्रणाली को ही अपनाया गया था। केंद्रीय शासन का भार सम्राट पर होता था। राज्य को अनेक जनपदों में विभाजित किया गया था। जनपदों के शासक अलग-अलग होते थे। यह सब सम्राट के अधीन रहते थे और उनके प्रति उत्तरदाई होते थे। जनपदों की केंद्रीय सत्ता को ‘पुर’ कहते थे जहां से समस्त जनपदों का शासन संचालित होता था। 

शासन का संचालन -

 श्रुति मिश्रित स्मृतियों के आधार पर किया गया था। यह सब प्रकार से पूज्य होता था। सम्राट की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद थी जिसकी पद्धति मनुस्मृति के आधार पर थी। मंत्री परिषद में 8 मंत्री होते थे जो सम्राट को परामर्श देते थे।


(2) सामाजिक व्यवस्था 

इस काल में समाज बड़ी उन्नत दिशा में था। आर्थिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से समाज बड़ा समृद्धि साली था। वर्गों के बीच परस्पर मित्रता की भावना विद्यमान थी। पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था तथा तलाक संबंधी नियम दोनों के लिए समान थे। बहुविवाह और पुनर्विवाह की प्रथा समाज के अंदर विद्यमान थी। शुंग कालीन शासन में समाज का सबसे बड़ा दो ही हुआ था कि समाज के अंदर रूढ़िवादिता विद्यमान थी। अंधविश्वास और पाखंड समाज के भयानक अंग बन गए थे। कालांतर में जाति प्रथा ने समाज को दूषित कर दिया था। उसके साथ ही उच्च कुल की अहमन्यता और भारतीय समाज का कलंक सती प्रथा भी समकालीन समाज में प्रचलित थी। 

(3) आर्थिक दशा या व्यवस्था 

इस काल की आर्थिक दशा मौर्यकालीन समाज की भांति थी। कृषि के संबंध में कोई जानकारी नहीं है। व्यापार और व्यवसाय के क्षेत्र में विशेष उन्नति हुई थी। मिलिंद प्रदन में व्यवसायियों की एक सूची मिलती है जिनमें मुख्य व्यवसाय हैं — सुनार, लोहार, जोहरी, जुलाहे, दर्जी और रथकार । इनके अतिरिक्त अन्य व्यवसाई भी आर्थिक दृष्टि से भारत को उन्नति शील बना रहे थे। कपड़ों का व्यापार भारत में बहुत अधिक हो रहा था। इसके साथ ही शिल्प कला के क्षेत्र में भी विशेष उन्नति हुई थी। इस युग में श्रम विभाजन के सिद्धांत को अपनाया गया था। व्यवसाय वंशानुगत होने लगा था और एक व्यवसाय करने वाले लोग एक निश्चित बस्ती में रहते थे। इनका एक संगठन होता था जिसे श्रेणी कहा जाता था। 

(4) धार्मिक व्यवस्था 

मौर्य शासनकाल में वैदिक धर्म का आरंभ हो गया था। किंतु शुंग शासनकाल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान आरंभ हुआ। पतंजलि तथा मनु जैसे विद्वान इसी काल में हुए थे। पतंजलि ने अपने महाभाष्य द्वारा संस्कृत को सुबोध रूप दिया। मनु ने ब्राह्मण की श्रेष्ठता और वर्णाश्रम धर्म की महत्वता को प्रतिस्थापित किया। साथ में ही महाभारत का परिवर्द्धन भी इसी काल में संपन्न हुआ।

शुंग - युग में भागवत धर्म और शैव धर्म दोनों की ही प्रगति हुई।

भगवत धर्म -

 भागवत धर्म के अनुयाई कृष्ण का पूजन करते थे। इस युग में व्यास कृत भागवत कथा को विशेष स्थान दिया गया था। यज्ञ कर्म भागवत धर्म में विद्वान नहीं था। या क्योंकि अनुष्ठान निष्ठा केवल प्राचीन वैदिक धर्म में थी, परंतु उसे इस नवीन वैदिक धर्म में कोई भी स्थान प्राप्त नहीं था। भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए भागवत धर्मा अनुयायी नृत्य गीत और बंदना का आश्रय लेते थे और उन्हें पत्र पुष्प फल आदि समर्पित करते थे।

शैव धर्म - 

शैव धर्म के आचार्य तकलोश‌ थे। उनके द्वारा रचित ‘पंचाध्यायी’ से ही इस धर्म का प्रचार हुआ। इस धर्म को मानने वाले शिव को विशेष महत्व प्रदान किया करते थे। कालांतर में शिव की प्रतिमा के स्थान पर शिवलिंग की पूजा होने लगी। शिव के साथ ही विष्णु सूर्य गणेश आदि देवताओं की पूजा भी इसी युग में की जाती थी। 

(5) साहित्य 

वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के साथ ही इस युग में साहित्य जगत में भी बड़े परिवर्तन हुए थे। यह कहा जाता है कि पतंजलि और पाणिनि शुंग काल में ही हुए। बहुत देव जैन साहित्य के भी दर्शन इस युग में होते हैं। बौद्ध परिपथ में महाविभाषा की भाषा इस युग ही देन है। अश्वघोष और वसुमित्र को भी शुंग काल में ही माना जाता है। जैन धर्म के अनुयाई ब्रजस्वामी का जन्म भी सॉन्ग काल में ही माना जाता है। 

(6) कला‌ का क्षेत्र 

1. वास्तु कला-

 शुंग काल में वास्तुकला ने विशेष उन्नति हासिल की। ईशक में पाटलिपुत्र, कौशांबी, वैशाली, मथुरा, हस्तिनापुर, वाराणसी और तक्षशिला समृद्धिशाली नगर थे। इन नगरों में सुंदर राज भवन और प्रसिद्ध प्रासादो का निर्माण किया गया था। सांची के स्तूप के तोरणों का निर्माण संघ कार्य नहीं हुआ था। भरहुत के विशाल स्तूप के तोरण कोलकाता के म्यूजियम में अभी देखे जा सकते हैं। यह तोरण सिंह काल में ही प्राप्त हुए थे। भरहुत की रेलिंग ने शुंग काल को अमर बना दिया।  

 इस युग की कला का उदाहरण बोधगया के मंदिर का सुंदर जंगला है। उड़ीसा और महाराष्ट्र के मंदिरों में शुंग काल की कलाकृति झलकती है। गोवा मंदिरों से हाथीगुंम्फा का गुहा मंदिर विशेष प्रसिद्ध है। उड़ीसा की मंचा पूरी गुफा, रानो गुम्बा, आदि भी प्रसिद्ध है

2. मूर्तिकला -

 वास्तुकला के साथ ही मूर्तिकला के क्षेत्र में भी इस युग में अपार मात्रा में उन्नति हुई। इस काल में प्राप्त बहुत सी मूर्तियां सांची के स्तूप में देखी जा सकती हैं। गुहा मंदिरों की दीवारों में भी इस कार की मूर्तियां अंकित है। बोधगया के चित्रों में वैदिक देवताओं का चित्रण हुआ है। इन चित्रों में पृथ्वी देवी शंकर के गण आदि के विविध चित्र है। पर हाथी के स्तूप के तोरण द्वारा भी शुंग कालीन कला की जीवंत प्रतीक है।

निष्कर्ष 

इन सभी विवरण से यह स्पष्ट होता है कि शुंग काल में भारतीय संस्कृति और कला की काफी मात्रा में उन्नति हुई थी। शुंग कालीन सभ्यता और संस्कृति का महत्व और अधिक होता यदि इसका विकास मौर्य और गुप्त कला के मध्य ना हुआ होता। मौर्य और गुप्त संस्कृति की चकाचौंध से शुंग कालीन संस्कृति का प्रकाश सभी दिशाओं की ओर नहीं बिखर पाया।

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