सल्तनत काल में सामाजिक स्थिति | सल्तनतकालीन सामाजिक दशा का वर्णन

 सल्तनत काल में सामाजिक स्थिति 

सल्तनत काल में भारतीय समाज दो भागों में विभाजित था। एक परंपरागत हिंदू समाज था जो मुस्लिम आक्रांताओं से संघर्ष कर रहा था। इस संघर्ष के कारण उनमें जो प्रतिक्रिया हुई थी। उसने हिंदू समाज को अधिक रूढ़िवादी बना दिया था। दूसरा मुस्लिम समाज था जो यद्यपि कम संख्या में था लेकिन विजेता होने के कारण अधिक शक्तिशाली तथा प्रभावशाली था। 

सल्तनत काल में सामाजिक स्थिति | सल्तनतकालीन सामाजिक दशा का वर्णन

हिंदू समाज

इस काल से ही हिंदू शब्द का प्रयोग विजेता मुसलमानों ने आरंभ किया था। अथवा सुविधा की दृष्टि से तथा मुस्लिम समाज से अंतर स्पष्ट करने के लिए भारतीय समाज को हिंदू समाज कहना समीचीन होगा। मुस्लिम विजय की हिंदू समाज पर दो प्रतिक्रियाएं हुई। प्रथम, सुरक्षा की दृष्टि से अधिक रूढ़िवादी हो गया और उसने विदेशियों के प्रवेश के लिए अपने द्वार बंद कर दिए। द्वितीय, जनसाधारण अवश्य सुरक्षित अवस्था में रह गया क्योंकि युद्ध करने का कार्य केवल राजपूतों का समझा जाता था और राजपूतों में एकता का अभाव था। उनके राज्य व्यक्तिगत रूप से तुर्क मुसलमानों से केवल तभी युद्ध करते थे जब उन पर आक्रमण किया जाता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि विदेशी आक्रमण से जो एकजुटता तथा आत्मरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। उस प्रकार की भावना हिंदू समाज में उत्पन्न नहीं हुई। 

(1) जाति प्रथा 

हिंदू समाज में विभिन्न जातियों में विभाजित था। जिनमें ऊंच-नीच की भावना थी। अभ यह प्रणाली अधिक कठोर हो गई थी। जातियों में संकीर्णता आ गई थी। सबसे अधिक दयनीय अवस्था शुद्रो की थी जो मुख्यतः शिल्पकार तथा सेवा वर्गों के थे। उन्हें अब अस्पृश्य समझा जाने लगा था। अनुलोम विवाह को भी घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा था ऐसे विभागों से उत्पन्न संतानों को मिश्रित जातियां कहा गया जिनकी संख्या इस काल में 64 तक पहुंच गई थी इस प्रकार सामाजिक समरसता तथा बंधुत्व के स्थान पर संकीर्ण वर्गों का निर्माण हो गया था। 

(2) हिंदुओं पर अत्याचार 

हिंदुओं को जजिया कर देने के लिए बाध्य किया जाता था। उनके समक्ष केवल दो विकल्प होते थे— जजिया देने या जजिया से बचने के लिए इस्लाम स्वीकार करना। हिंदुओं के लिए सभी सरकारी पद बंद कर दिए गए थे। उन्हें नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। हिना योग्यताओं से बचने के लिए या अन्य प्रलोभन ओं के कारण जो हिंदू इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेते थे, उन्हें भी मुस्लिम समाज में हेय समझा जाता था। जहां केवल विदेशी मुसलमानों का वर्चस्व रहता था। अगर ऐसे परिवर्तित हिंदू वापस हिंदू समाज में आना चाहते थे तो उन्हें मृत्यु दंड दिया जाता था। 

(3) भोजन 

भोजन का प्रतिबंध जातियों पर ही नहीं बल्कि उस जातियों पर भी लागू था। अलबरूनी लिखता है कि भोजन के मामले में चारों जातियां चार पृथक वर्गों के समान थी। अगर दो ब्राह्मण भोजन करते थे तो वे अपने मध्य एक विभाजक रेखा बना लेते थे। विदेशी यात्रियों के अनुसार भारतीय दूध और चावल सबसे अधिक पसंद करते थे। हिंदू मुख्य रूप से निरामिष थे। मुसलमान सामान्यतः मांसाहारी थे। वे स्वतंत्रता पूर्वक मांस मछली शिकार की जाने वाली पक्षियों तथा भेड़ बकरी का मांस खाते थे। 

(4) वस्त्र आभूषण 

साधारण तो हो हिंदू पुरुष धोती, पगड़ी तथा स्त्रियों साड़ियां पहनती थी। ऊनी सूती और रेशमी वस्त्रों का प्रचलन था। मुसलमानों में उत्तम वस्त्रों का प्रयोग अधिक होता था। वही बहुमूल्य रंगीन वस्त्र धारण करते थे। उनके वस्त्र सुनहरे और  रुपहले बेल बूटो से अलंकृत रहते थे। आभूषण पहनने का रिवाज हिंदू और मुसलमान दोनों में था।

(5) आमोद प्रमोद 

हिंदुओं में त्यौहार जैसे- वसंत, रक्षाबंधन आमोद प्रमोद के अवसर होते थे। संगीत नृत्य कला प्रदर्शन नाटक भी मनोरंजन के साधन थे। मुसलमानों में ईद मुहर्रम आदि त्योहारों को मनाया जाता था। उनके धार्मिक संस्कारों में अकीका सुन्नत आदि थे। अमीर वर्ग सुल्तान शिकार के द्वारा भी मनोरंजन करते थे।

मुस्लिम समाज 

(1) प्रजातीय प्रभाव 

सैद्धांतिक रूप से मुस्लिम समाज में समानता का सिद्धांत स्थापित था लेकिन व्यवहारिक रूप से ऐसा नहीं था उनमें भी जन्म संप्रदाय नस्ला आदि के आधार पर अनेक भेदभाव हो गए थे। आरंभ में अरब मुसलमान स्वयं को अन्य मुसलमानों से उच्च समझते थे। वर्गों में भी कुरेश परिवार को अधिक महत्व दिया जाता था क्योंकि पैगंबर मोहम्मद इसी कबीले के थे। इसी प्रकार मुसलमानों में, हिंदुओं में जिस प्रकार ब्राह्मण को उच्च और पवित्र माना जाता था, सैयदो को पवित्र माना जाता था। दास सुल्तानों के काल में तुर्क जातिवाद का गहरा प्रभाव था और अन्य मुसलमानों को हेय समझा जाता था। सबसे निम्न स्थान उन मुसलमानों का था जो हिंदू से मुसलमान बने थे या उनके वंशज थे। लेकिन मुस्लिम और घूमने कभी भी हिंदुओं की जाति के समान प्रतिबंधित वर्ग का रूप धारण नहीं किया। अलाउद्दीन खिलजी के काल में मलिक काफूर का उच्च पद प्राप्त करना और फिरोज तुगलक के काल में खान जहां मकबूल का प्रधानमंत्री पद प्राप्त करना यह प्रदर्शित करता है कि कभी-कभी भारतीय मुसलमान उच्च पदों पर पहुंच जाते हैं। लेकिन यह अपवाद ही रहता था। सामान्य हो विदेशी मुसलमानों का ही सम्मान था और वे उच्च पद प्राप्त करते थे। 

(2) विभिन्न वर्ग 

मुस्लिम समाज में सुल्तान के पश्चात अमीरों का वर्ग था जो उच्च अधिकारी थे। वे वैभव पूर्ण जीवन बिताते थे और प्रयोग विदेशी होते थे। उनके नीचे उलेमा वर्ग होता था जो मुस्लिम समाज का शिक्षित शास्त्रज्ञ वर्ग होता था। यह वर्ग धर्म शिक्षा संबंधी पदों का एकाधिकार सकते थे। मध्यकल में इस प्रकार मुस्लिम समाज दो भागों में विभक्त था— अहले सेब और अहले कलम। पहला वर्ग सैनिकों का तथा दूसरा वर्ग शिक्षित उलेमानों का था।

(3) दास प्रथा 

दास रखने की प्रथा हिंदू और मुसलमान दोनों में थी। दासों को बाजारों में खुले रूप से बेचा जाता था। हिंदू स्मृतियों में 15 प्रकार के दोषों का वर्णन जिनमें प्रमुख हैं— घर की दासी से उत्पन्न, अकाल के समय मृत्यु से बचाया हुआ, ऋण चुका सकने वाला, युद्ध में बंदी बनाया गया, पतित साधु जो नौकरी कर ले और आत्मा विक्रेता जो अपने को स्वयं भेज दे। मुसलमानों में भिन्न प्रकार की परंपरा थी। जिनमें चार प्रकार के दांत होते थे — खरीदा हुआ, युद्ध में बंदी बनाया हुआ, दूसरे के द्वारा दिया गया और जो स्वयं को दास के रूप में बेच दे। लेकिन राशि से संतान होने पर दोनों ही दासता से मुक्त हो जाते थे। दासों से अच्छा व्यवहार किया जाता था। मुस्लिम समाज में दांसो को ऊंचा स्थान प्राप्त करने की सुविधा थी। ऐबक इल्तुतमिश और बलबन जैसे गुलाम अपनी योग्यता के बल पर सुल्तान पद प्राप्त कर सके थे। स्वामी को दास को मुक्त करने का अधिकार था। अलाउद्दीन खिलजी के काल में 50000 और फिरोज तुगलक के काल में लगभग दो लाख दास थे। 

स्त्रियों की स्थिति 

मुस्लिम आक्रमणों के कारण हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा में निरंतर ह्रास हुआ था। उनकी स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबंध लगे थे। कुमारी अवस्था में माता-पिता के नियंत्रण में तथा विभाग के पश्चात उन्हें पति के नियंत्रण में रहना पड़ता था। सामाजिक तथा धार्मिक मामलों में भी उन्हें पुरुषों से हीन समझा जाता था। ए० एल० श्रीवास्तव का कहना है, “सल्तनत काल में स्त्रियों की दशा और खराब हो गई थी। मुसलमानों के भाई और अत्याचारों के कारण बाल्यावस्था में ही विवाह करा दिया जाता था। कन्याओं के विवाह 7 से 10 वर्ष या अधिक से अधिक 12 वर्ष की आयु तक किए जाने लगे। कन्या के रजस्वला होने तक या उसके पश्चात होने वाले विभागों को अच्छा नहीं समझा जाता था। और माता पिता के लिए पाप माना जाता था।” 

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