मार्क्स के राज्य संबंधी विचार एवं सिद्धांत तथा उनकी आलोचनाएं

     मार्क्स के राज्य पर विचार

मार्क्स के राज्य संबंधी सिद्धांत; मार्क्स के पूर्ववर्ती विद्वानों ने राज्य के संबंध में एक नैतिक विचारधारा का समर्थन किया था। उनका मत था कि राज्य एक सर्वोच्च संस्था है और राज्य की उत्पत्ति व्यक्ति के शुभ जीवन के लिए ही हुई है। आदर्श वादियों ने तो यहां तक कह दिया कि राज्य एक देवी शक्ति है, हमें उसके कदमों पर गिरकर उसकी पूजा करनी चाहिए, किंतु मार्क्स की विचारधारा अपने इन पूर्ववर्ती विचारों से पूर्णतया पृथक है। उसने राज्य को एक नैतिक संस्था मानने से ही इंकार नहीं किया बल्कि उसने यहां तक यह कह दिया कि राज्य पूंजीपतियों के हाथ की एक मशीन है जो कि मजदूरों का शोषण करने में उनकी सहायता करती है। यदि मजदूरों में क्रांति का भाव उत्पन्न होता है तो राज्य रूपी यंत्र के द्वारा उनकी भावनाओं को कुचल दिया जाता है। 

मार्क्स के राज्य संबंधी विचार एवं सिद्धांत तथा उनकी आलोचनाएं

मार्क्स के राज्य संबंधी विचार 

मार्क्स ने राज्य के संबंध में जो विचार व्यक्त किए हैं — 

(1) राज्य शक्तिशाली वर्गों के हितों का रक्षक

मार्क्स के अनुसार इतिहास इस बात का साक्षी है कि राज्य में शासन की सत्ता सदैव शक्तिशाली लोगों के हाथों में रहती है। यह शक्तिशाली वर्ग निर्गुण वर्गों का सदैव ही शोषण करते रहते हैं, इसलिए राज्य से सदैव ही निर्बल वर्गो का दमन करने वाला यंत्र रहा है। इसे कभी भी सार्वजनिक हितों का रक्षक कहना भूल होगी। 

(2) राज्य की उत्पत्ति का कारण वर्ग विभेद

मार्क्स के अनुसार राज्य की उत्पत्ति वर्ग विभेद के कारण हुई है। वॉइस बाद में स्वास्थ करता है कि राज्य नामक संस्था का निर्माण एक वर्ग का दूसरे वर्गों पर आधिपत्य और नियंत्रण रखने के लिए किया गया है। मार्क्स यह स्वीकार नहीं करता है कि राज्य कोई ऐतिहासिक संस्था है। राज्य का जन्म तो तब हुआ जब मानव में मानव का शोषण करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई। मार्क्स के विचारों के अनुरूप राज्य की उत्पत्ति प्रमुख रूप से सामंतवादी अथवा पूंजीवादी युग मैं हुई होगी। मार्क्स राज्य को एक वर्गीय संस्था मानता है। 

(3) राज्य की श्रमिकों के प्रति उदासीनता 

मार्क्स का योगी मत है कि राज्य देवी पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करता है, वह श्रमिकों के हितों का चिंतन नहीं करता। इतिहास इस बात का साक्षी है कि पूंजीपति सदैव ही श्रमिकों का निर्भय होकर शोषण करते रहते हैं। बताओ यह कहा जाता है कि राज्य शरीर में को के हितों के प्रति उदासीनता का भाव रखता है। यह जनहित का विरोधी और पूंजी पतियों के हितों का रक्षक होने के कारण एक उच्च संस्था होने का दावा नहीं कर सकता। 

(4) राज्य विहीन व वर्ग विहीन समाज की कल्पना 

मार्क्स का मत है कि राज्य का जन्म सामाजिक वर्गों के संघर्ष को दूर करने के लिए तथा पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए होता है। मार्क्स इस बात में विश्वास रखता है कि एक समय आने पर पूंजीपति वर्ग समाप्त हो जाएगा। इस वर्ग की समाप्ति के लिए श्रमिक वर्ग संगठित होकर क्रांति करेगा। क्रांति के पश्चात सर्वहारा वर्ग का अधिनायक तंत्र स्थापित होगा। तब एक वर्ग विहीन समाज की स्थापना होगी, जिसमें कोई शोषण नहीं होगा। और राज्य की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। इस प्रकार मार्क्स राज्य विहीन तथा वर्ग विहीन समाज की कल्पना करता है।

(5) राज्य और शासन शोषण के यंत्र 

मार्क्स का मत है कि जो विभिन्न सामाजिक वर्ग पारस्परिक संघर्षों में लीन होने के कारण समाज और व्यक्ति के हितों को भूल जाते हैं और चारों ओर अराजकता फैल जाती है तब आतंक कारी सामाजिक वर्गों का दमन करने के लिए राज्य का जन्म होता है। इसलिए मासी ने यह कहा है कि राज्य एक ऐसी चक्की है जिसको कष्टकारी चक्की की संज्ञा दी जा सकती है और जो श्रमिक वर्ग के हितों को पीस डालती है। मार्क्स राज्य और शासन को शोषण के यंत्र मानता है।

(6) अंतरिम काल में सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद

मार्क्स का मत है कि वर्तमान युग पूंजीवादी युग है। इसमें पूंजीपतियों और श्रमिकों में संघर्ष चलता रहता है। तथा इस युग में पूंजीपति श्रमिकों का शोषण करते रहते हैं। अतः श्रमिकों की क्रांति द्वारा पूंजीवाद की समाप्ति पर शासन की संपूर्ण सत्ता श्रमिक वर्ग में निहित होगी। यह श्रमिक वर्ग उन सभी तत्वों का विनाश करेगा जो पूंजीवाद के जन्म को प्रोत्साहन देते हैं। श्रमिक वर्ग की यह सत्ता सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद के नाम से पुकारी जाएगी, जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति और पूंजीवादी शक्तियों का विनाश हो जाएगा तथा उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीय एकीकरण हो जाएगा।

मार्क्स के राज्य संबंधी सिद्धांत की आलोचना 

(1) मार्क्स राज्य को शक्ति पर आधारित मानता है, जबकि वास्तव में राज्य के कानूनों का पारण व्यक्ति स्वेच्छा से अपने हितों की सुरक्षा के लिए करते हैं।

(2) मार्क्स राज्य को केवल पूजी पतियों के हितों का रक्षक मानता है। आलोचकों का मत है कि मार्क्स की अवधारणा भ्रम पूर्ण है क्योंकि राज्य को एक कल्याणकारी संस्था माना गया है जो सभी वर्गों का हित करती। आधुनिक काल में राज्य सर्वहारा वर्ग का शत्रु ना होकर उसका मित्र है। 

(3) मार्क्स शक्ति को राज्य का आधार मानता है जबकि व्यावहारिक दृष्टि से इच्छा ही राज्य का आधार है, शक्ति नहीं।

(4) मार्क्स के अनुसार राज्य सरकार वर्ग को पीसने वाली एक चक्की है। मार्क्स की यह विचारधारा भी मान्य नहीं है क्योंकि समाज का जन्म सार्वजनिक हितों के लिए होता है। वस्तुतः राज्य वर्गीय संगठन नहीं है बल्कि एक नैतिक संगठन है। 

(5) मार्क्स इकाई होगी भ्रम है कि राज्य की समाप्ति के बाद वर्ग विहीन तथा राज्य विहीन समाज की स्थापना होगी, क्योंकि भविष्य के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता कि राज्य की समाप्ति के उपरांत किस प्रकार का शासन- तंत्र स्थापित होगा। आलोचकों का विचार है कि राज्य के विलीनीकरण की धारणा भी असत्य है, क्योंकि राज्य एक स्थाई संस्था है तथा राज्य के विलीनीकरण की धारणा केवल कल्पना मात्र है।

(6) मार्क्स क्रांति के द्वारा वर्ग विहीन समाज की कल्पना करता है। आलोचकों का मत है कि क्रांति सदैव अराजकता को जन्म देती है शांति एवं व्यवस्था को नहीं। 

(7) लोक शिकायत भी मत व्यावहारिक नहीं है कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद स्वत: समाप्त हो जाएगा, क्योंकि कोई भी वर्ग शक्ति प्राप्त करके सरलता से शक्ति को छोड़ना नहीं चाहता। लांस्की की शब्दो में, “शक्ति के विष कुप्रभाव सर्वविदित है और यह मान लेना कठिन है कि साम्यवादी उसके प्रभाव से बचे रहेंगे।”


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