हर्ष के समय समाज और संस्कृति
(1) सामाजिक दशा
ह्वेनसांग के अनुसार, “भारतीय समाज इस काल में चार प्रमुख जातियों में विभाजित था” ये जातियां यह थै—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। ब्राह्मणों का इस युग में विशेष महत्व था, उनसे राजकाज के प्रत्येक मामले में सलाह ली जाती थी। अमात्य के पदों पर भी ब्राह्मणों की नियुक्ति की जाती थी। क्षत्रियों का जीवन सरल तथा सादा होता था। राजनीति में उनका प्रभाव अत्यधिक था।
ह्वेनसांग विभिन्न उप जातियों का उल्लेख करता है। उसने उप जातियों को मिश्रित जाति कहकर पुकारा है। इन उप जातियों का जन्म अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह के कारण हो गया था। अछूतों की संख्या भी विशाल थी। इनके घरों पर निशान लगा दिए जाते थे तथा इन्हें नगर से दूर रहना पड़ता था। अछूतों में भंगी, कसाई, मछुआरे, नट तथा चांडाल आदि सम्मिलित थे। सो जाती है विवाह का अधिक प्रचलन था परंतु अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह के भी उल्लेख मिले हैं। विवाह अत्यंत उत्साह के साथ किए जाते थे। राजा लोग अनेक विवाह करते थे।
संतान प्राप्ति के लिए स्त्रियां विभिन्न अनुष्ठान करती थी। पुत्र जन्म पर बड़े उत्सव तथा समारोह किए जाते थे। ह्वेनसांग के अनुसार तीन प्रकार की दाह- क्रिया होती थी जो इस प्रकार से हैं—
(क) दाह संस्कार - इसमें सव को जला दिया जाता था।
(ख) जल विलियन - इसमें शव को पानी में बहा दिया जाता था।
(ग) शव को जंगल में पशुओं के लिए छोड़ दिया जाता था।
भारत वासियों की खानपान के विषय में चीनी यात्री लिखता है, “प्याज लहसुन का उत्पादन कम होता है तथा बहुत कम लोग इसे खाते हैं। यदि इन्हें कोई खाता है तो नगर की सीमा से बाहर निकाल दिया जाता है।” दूध की भुने चने तथा रोटियां जनसाधारण का भोजन हुआ करती थी। ह्वेनसांग के अनुसार - “रंग बिरंगी वस्त्र लोकप्रिय नहीं थे। अधिकांश व्यक्ति श्वेत वस्त्र पहनते थे।”
उच्च नैतिक स्तर
साधारण लोगों का जहां तक संबंध है वह चरित्रवान तथा सम्मानीय हैं। धन के मामलों में वे जलरहित है, न्याय में उदार हैं। भावी जीवन के परिणामों से डरते हैं। अपने आचरण में धोखेबाज या कपट पूर्ण नहीं है और अपनी प्रतिज्ञाओं तथा अन्य शपथ के प्रति सच्चे हैं।
(2) आर्थिक दशा
जनता पर हल्के कर लगाए गए थे। उपज का छठा भाग भूमि कर के रूप में लिया जाता था। रहने के लिए मकान ईटों के बने होते थे। मकान बनाने के लिए लकड़ी और बांस का भी प्रयोग किया जाता था। मकानों के अंदर सजावट की जाती थी। कृषि प्रमुख व्यवसाय था। व्यापार मुख्यतया वैश्यों द्वारा किया जाता था। बंगाल में तमरालिप्त बंदरगाह था। दूसरा बंदरगाह भड़ौच में था। उज्जैन और पाटलिपुत्र व्यापार के मुख्य केंद्र थे। जावा चीन तथा तिब्बत से भारत के व्यापारिक संबंध थे।
(3) धार्मिक दशा
हर्ष बौद्ध धर्म की महायान शाखा को मानने वाला था। अपने शासनकाल में उसने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए बहुत कुछ किया। कश्मीर से उसने महात्मा बुद्ध के दांत मंगवाए थे, जिससे उसकी भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धा का पता चलता है। बौद्ध धर्म के लिए किए गए कार्यों का उल्लेख ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण में किया है। वह लिखता है, “ हर्ष ने पंच भारत में मांसाहार पंचगौड समाप्त कर दिया था।
पशुओं को शारीरिक कष्ट देने की भी मनाई कर दी थी। गंगा के तट पर उसने सहस्त्र स्तूप निर्मित करवाएं तथा पवित्र बौद्ध स्थानों में विहारों की स्थापना करवाई। वह नियमित रूप से पंचवर्षीय दान का वितरण करता था।”
महायान धर्म को प्रचलित करने के लिए उसने कन्नौज में विशाल सभा का आयोजन किया। इस सभा में 18 राजा 3000 भिक्षु 3000 ब्राह्मण और 1000 नालंदा के विद्वान सम्मिलित हुए थे। नित्य भगवान बुद्ध की मूर्ति का जुलूस निकाला जाता था। इस सभा में ह्वेनसांग ने महायान धर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन बहुत सुंदर ढंग से किया। कुछ ब्राह्मणों ने ह्वेनसांग को मारने का भी प्रयत्न किया था। इस सभा के फल स्वरुप महायान धर्म का प्रसार तीव्रता के साथ हुआ। बौद्ध धर्म के ज्ञान को विकसित करने के लिए हर्षवर्धन बौद्ध धर्म भिक्षुओं की सभा बुलाता था। एनी सभा में 21 दिन तक गहन विषयों पर वाद विवाद होता था।
(4) शिक्षा की व्यवस्था
ह्वेनसांग के विवरण से यह ज्ञात होता है कि हर्षित शिक्षा प्रसार में विशेष योगदान प्रदान करता था। नालंदा उस काल का प्रमुख विश्वविद्यालय था। ह्वेनसांग ने लगभग 2 वर्ष विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। वह यहां के अनुशासन शिक्षा पद्धति तथा वातावरण से विशेष रूप से प्रभावित था। वह नालंदा विश्वविद्यालय के संबंध में लिखता है—
अत्यंत उच्च कोटि की प्रतिभा तथा योग्यता वाले कई हजार भिक्षु यहां रहते हैं। उनका यश दूर-दूर के देशों तक फैल चुका था। उनका चरित्र पवित्र और दोष रहित है। वे नैतिक नियमों का पालन कड़ाई से करते हैं। मठ के नियम बहुत कड़े हैं और उन्हें सब भाइयों को पालन करना पड़ता है। वे सुबह से रात्रि तक वाद-विवाद में व्यस्त रहते हैं। जो त्रिपिटक की समस्याओं पर वाद विवाद नहीं कर सकते वह शर्म से अपना मुंह छुपाते हैं। विभिन्न देशों के विद्वान जो शीघ्र वाद ववाद में अपनी योग्यता बढ़ाना चाहते हैं वे लोग यहां आते थे। यदि बाहर से कोई प्रश्नों का ठीक उत्तर नहीं दे पाते तो उनका प्रवेश नहीं हो पाता है। नालंदा में प्रवेश पाने की शर्तें कड़ी हैं और उसके लिए अधिक योग्यता की आवश्यकता है। विद्यार्थियों के पोषण के लिए 250 ग्राम लगे हैं। इस समय के धुरंधर पंडित तथा विद्वान की उपस्थिति आवश्यक है। इसमें लगभग 1000 अध्यापक और 10000 विद्यार्थी रहते थे।
(5) सभ्यता तथा संस्कृति
हर्ष के काल में सभ्यता संस्कृति के दृष्टिकोण से भारत बहुत उन्नत दिशा में था। विद्या कला तथा विज्ञान की जो अपूर्व धारा गुप्त काल में प्रभावित हो चली थी उसकी निरंतरता हर्ष के कारण बनी रही। साहित्य तथा काल में भी कृत्रिमता नहीं आ पाई थी। हंसी के समय में भारतीय सभ्यता संस्कृति का विदेशों में भी बहुत अच्छा प्रचार हुआ। इस काल में तिब्बत से भारत के घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गई है और भारतीय सभ्यता का वहां पर बहुत प्रचार हो गया था। इस काल में अनुवाद के कार्य में भी बहुत बृद्धि हुई। भारतीय विद्वानों ने हिमालय को पार कर अथक प्रयास से चीनी जैसी चित्र प्रधान लिपी को सिखा। इस प्रकार मध्य एशिया के साथ भारत का सांस्कृतिक आदान-प्रदान इस काल में बहुत बड़ा था। दक्षिण पूर्व एशिया के द्वीप समूह में भारतीय सभ्यता संस्कृति के प्रचार के दृष्टिकोण से हर्ष का काल अत्यंत महत्वपूर्ण था।
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