भारत विभाजन 1947
या भारत-पाकिस्तान विभाजन के कारण
भारत विभाजन : भारत-पाकिस्तान विभाजन के कारण भारत के राष्ट्रीय नेता गण व जनता देश के विभाजन के पक्ष में नहीं थे, परंतु मुस्लिम लीग द्वारा सन 1939 के आरंभ से ही घूर सांप्रदायिकता को अपनाया गया था जिसके परिणाम स्वरूप देश के किसी न किसी कोने में मुस्लिम द्वारा हिंदुओं पर भारी अत्याचार किए जाने लगे थे। इससे देश के हिंदू और मुसलमानों के मध्य सांप्रदायिकता का विष व्यापत हो गया। इस स्थिति का सामना करने के लिए हिंदू जनमत पहले से ही तैयार था क्योंकि लीग वह मुसलमानों के अत्याचार पराकाष्ठा पर थे। परंतु सन 1946 तक भारत विभाजन अनिश्चय की स्थिति में था। जिस आकस्मिक ढंग से सन 1947 में भारत का विभाजन हुआ वह आशा के प्रतिकूल था। इस विभाजन के निम्नलिखित कारण थे—
भारत विभाजन के प्रमुख (मुख्य) कारण
(1) अंग्रेजों की ‘फूट डालो वो राज करो’ की नीति
भारत विभाजन के कारण : फूट डालो और राज करो, भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को बनाए रखने की ब्रिटिश सरकार के प्रमुख नीति थी। जिस भारत में हजारों वर्षों से हिंदू मुसलमान सांसद भाई के समान रहते आ रहे थे उन दोनों के बीच धर्म के उन्माद को फैलाकर अंग्रेजों ने इनको एक दूसरे के खून का प्यासा बना दिया। मुस्लिम लीग को ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं के विरुद्ध बराबर भड़काया वह सरकारी संरक्षण दिया। सर्वप्रथम लॉर्ड मिंटो ने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार करके राष्ट्र जीवन में जहर घोल दिया था। और इसका परिणाम पाकिस्तान के रूप में हमारे सामने आया।
(2) हिंदू सांप्रदायिकता का विषैला (जहरीला) प्रभाव
भारत विभाजन के कारण के लिए कुछ सीमा तक हिंदू सांप्रदायिकता भी उत्तरदाई रही है। हिंदू महासभा जो हिंदुओं की एकमात्र संस्था थी अपने प्रारंभिक काल में पंडित मदन मोहन मालवीय व लाला लाजपत राय के नेतृत्व में कांग्रेस की एक सहायक उप संस्था थी परंतु 1932 के बाद इस संस्था पर कट्टर विचारधारा वाले तत्वों ने आधिपत्य जमा लिया था। सन 1934 के अहमदाबाद हिंदू महासभा सम्मेलन में वीर सावरकर ने अध्यक्षता करते हुए कहा था, “भारत एक और एक सूत्र में बड़ा राष्ट्र नहीं हो सकता; अपितु यहां हिंदू व मुसलमान दो राष्ट्र विद्यमान है।”
(3) कांग्रेस की लीग के प्रति व्यवहारिक गलतियां
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लिख प्रतीक कुछ बड़ी भारी गलतियां की जिनके कारण लीग के प्रभाव व हठधर्मिता में वृद्धि हुई। यह भी भारत विभाजन का एक कारण बना। सन 1916 में कांग्रेस ने लीग से समझौता करके बड़ी भारी गलती की। इसके पश्चात तो इन गलतियों की पुनरावृत्ति होती ही चली गई, जैसे सन 1919 में कांग्रेस ने असहयोग के साथ-साथ खिलाफत आंदोलन को अपनाया। यह उसकी दूसरी बहुत बड़ी भूल थी। कांग्रेस की तीसरी गलती होती कि सन 1932 में कांग्रेस द्वारा सांप्रदायिक निर्णय को स्वीकार कर लिया गया।
(4) हिंदुओं का मुसलमानों के प्रति व्यवहार
अंग्रेजों का मुसलमानों के प्रति सहानुभूति पूर्ण व्यवहार आरंभ मैं तो नहीं था, परंतु लीग द्वारा बराबर सरकारी भक्ति भाव वह कांग्रेस के विरोधी नीति का अंग्रेजों की मन पर गहरा प्रभाव पड़ा जिससे धीरे-धीरे अंग्रेजी सरकार का रुख भी लिखकर प्रति सहानुभूति पूर्ण होता चला गया था। मुसलमानों का अंग्रेजों के प्रति शीघ्र झुकाव इसलिए भी हुआ कि राष्ट्रीय जीवन में हिंदू मुसलमानों के साथ अपमानजनक व्यवहार करते थे। हिंदू मुसलमानों के शरीर छू जाने को पाप मानते थे तथा सामाजिक जीवन में मुसलमानों को गंदा, मांस खाने वाले, रूढ़ीवादी, निर्दई मनीष कहकर उनका फोन किया जाता था। इसलिए मुसलमानों के मन में हिंदुओं की इस नीति के लिए घृणा पैदा हो गई थी।
(5) सत्ता का आकर्षण व संघर्ष
कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं ने अपने जीवन में अधिकाधिक समय ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ने में बिताया था तथा अनेकों बार कारावास के दुख भरे थे किंतु अब इन्हें संघर्ष से लगाव नहीं रह गया था और अब इनकी उम्र भी बड़ी हो गई थी जिसके कारण इनमें पहले जैसा उत्साह वह शारीरिक शक्ति नहीं थी। साथ ही क्योंकि इन्होंने ब्रिटिश सरकार की जेलों में यात्राएं सही थी अब इनका मन स्वतंत्र भारत को मिलने वाली सत्ता का सुख लेने के लिए तरस रहा था। अतः जिन्होंने विभाजन के विरुद्ध आवाज में उठाकर उपरोक्त कारणों से भारत विभाजन को शीघ्रता से स्वीकार कर लिया। भारत विभाजन का यह भी अत्यधिक महत्वपूर्ण कारण है।
(6) लार्ड माउंटबेटन का व्यक्तिगत प्रभाव
भारत के अंतिम ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस के नेताओं पर विभाजन स्वीकार करने के लिए भारी दबाव डाला था। लॉर्ड माउंटबेटन की राजनीतिक परिपक्वता अत्यधिक शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व से सरदार वल्लभ भाई पटेल को विभाजन के लिए राजी कर लिया और फिर इसके पश्चात उन्होंने नेहरू और गांधी को भी विभाजन के पक्ष में करने में सफलता प्राप्त कर ली।
(7) सत्ता हस्तांतरण का ब्रिटिश दृष्टिकोण
सन 1929 में भारतीय जनता वह सरकार के बीच तनाव व संवैधानिक गतिरोध बराबर बना रहा। ब्रिटेन के भारत पक्षी लोगों को भी यही विश्वास था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरांत भारत राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहेगा। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का विचार था कि यदि स्वतंत्र होकर भारत स्वतंत्र पूरी हार करेगा तो उसको अधिकाधिक कमजोर करना ही उत्तम होगा। इसलिए अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग को कांग्रेस के विरोध में हर संभव सहायता दी तथा लीक को पाकिस्तान बनाने का पूरा पूरा अवसर प्रदान किया था। ताकि दो देश (भारत व पाकिस्तान) आपस में ही लड़ते रहे। कांग्रेस द्वारा माउंटबेटन योजना को यह सोचकर स्वीकार कर लिया गया कि यदि इसे स्वीकार न किया तो ब्रिटिश सरकार को भी दूसरी हानिकारक योजना भी लागू कर सकती है।
(8) शीर्षस्थ नेताओं की उदासीनता
अंत में शीर्षस्थ नेताओं की उदासीनता भी भारत विभाजन का एक प्रमुख कारण रही है। क्योंकि राष्ट्रीय कांग्रेस व समस्त देशवासी महात्मा गांधी पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल आदि के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़े थे। स्वतंत्रता मिलने के समय यह लोग ही पाकिस्तान विचार के घोर विरोधी थे, परंतु लॉर्ड माउंटबेटन के प्रभाव व अन्य कारण से इन चोटी के नेताओं द्वारा हियर विभाजन स्वीकार करके मौन साध लिया गया तो राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता के सामने भी शिवाय झुकने की और कोई चारा नहीं रह गया था। इसलिए देशवासियों ने भी इसे स्वीकार करके आजाद भारत में सुख चैन से जीवन व्यतीत करने की आशा की। इससे पाकिस्तान निर्माण का मार्ग कंटक विहीन हो गया। महात्मा गांधी के अनुसार, “यह आध्यात्मिक दुर्घटना और 32 वर्षों की सत्याग्रह का लज्जा जनक परिणाम था।”
(9) पाकिस्तान की स्थिरता में संदेह होना
भारत के शीर्षस्थ नेताओं कोई हो विश्वास था कि भारत विभाजन असफल हुआ क्योंकि उन्हें पाकिस्तान के बने रहने में भारी संदेश था। यह हो इसलिए की भौगोलिक, आर्थिक, सैनिक तथा राजनीतिक भिन्नता की दृष्टि से पाकिस्तान टूट जाएगा और थोड़े बहुत समय पश्चात पुन भारतीय संघ में शामिल होने को बाध्य होगा। इसलिए भी कांग्रेस हुआ अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने विभाजन का पूरा जोर तरीके से विरोध नहीं किया।
(10) सत्ता-हस्तांतरण पर ब्रिटिशों का दृष्टिकोण
सन 1929 से भारतीय जनता वह सरकार के बीच तनाव व संवैधानिक गतिरोध बराबर बना रहा। ब्रिटेन के भारत पक्षी यो लोगों को भी यही विश्वास था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरांत भारत राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहेगा। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का विचार था कि यदि स्वतंत्र होकर भारत स्वतंत्रता पूर्ण व्यवहार करेगा तो उसको आधिकारिक कमजोर करना ही उत्तम होगा। इसलिए अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग को कांग्रेस के विरोध में हर संभव सहायता दी तथा लिख को पाकिस्तान बनाने का पूरा-पूरा अवसर प्रदान किया ताकि दो देश (भारत और पाकिस्तान) आपस में ही लड़ते रहे।
इसे भी जरूर से जाने — क्या भारत का विभाजन अनिवार्य था?
निष्कर्ष - भारतीय स्वतंत्र संग्राम की नींव 1857 में रखी गई थी, परंतु सन 18 से 85 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होने पर आजादी के संघर्ष को राष्ट्रीय कांग्रेस ने जारी रखा। यद्यपि आरंभ में कांग्रेस ने एक दबाव गुड क रूप में ही काम किया था, किंतु बाद में इसने राजनीतिक दल का रूप धारण किया। कांग्रेस में उदार वादियों, फिर उग्रवादियों और उसके बाद क्रांतिकारियों का बाहुल्य रहा। सन 1918 में गांधी द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को देशवासियों का आजादी प्राप्त करने तक निर्देशित किया गया। भारत विभाजन की नीव तो सन 1906 मुस्लिम लीग के जन्म के साथ ही रखी गई थी। सन 1936 पाकिस्तानी बीज को जैसे से हवा पानी व खाद मिलती गई वैसे वैसे यह पनपता गया और सन 1947 में इसने एक विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लिया। वस्तुतः सन 1947 का भारत विभाजन एक प्रकार से अवश्यंभावी था, फिर भी यह भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है।
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