1857 की क्रांति | 1857 की क्रांति के प्रभाव

 1857 की क्रांति 

इतिहासकारों से इस 1857 के विद्रोह के स्वरूप के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रकट किए हैं। के, मालेसन, ट्रेविलियन, लारेन्स तथा लेम्ज जैसे इतिहासकारों ने तो साम्राज्य के प्राकृतिक पक्षपाती थे, इसे केवल सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है, जो कि वह सेना तक ही सीमित था और जिसे जनसाधारण का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। समकालीन कुछ भारतीयों के विचारों में भी यह एक सैनिक विद्रोह था। मुंशी जीवन लाल और मोइनुद्दीन (जो उस समय दिल्ली में थे) दुर्गादास बंदोपाध्याय (जो उस समय बरेली में थे) और सर सैयद अहमद खां (जो 8857 में बिजनौर में सदर अमीर की पदवी पर थे)  ने ऐसे ही विचार प्रकट किए। 

1857 की क्रांति | 1857 की क्रांति के प्रभाव

अन्य लोगों ने इसे ईसाइयों के विरुद्ध धार्मिक युद्ध की संज्ञा दी है। अथवा श्वेत तथा काले लोगों के बीच सर्वश्रेष्ठ था के लिए संघर्ष बताया। कुछ अन्य लोग इसे पाश्चात्य तथा पूर्वी सभ्यता तथा संस्कृति के बीच संघर्ष कहते हैं। और कुछ लोग इसे अंग्रेजी राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए हिंदू मुस्लिम षड्यंत्र का नाम देते हैं।


1857 की क्रान्ति के प्रभाव 

सन 1857 ई० का विद्रोह यद्यपि पूर्णतया दमन हो गया फिर भी इसने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को मूल रूप से हिला दिया। लॉर्ड क्रोमा ने कहा था— “काश कि अंग्रेजों की युवा पीढ़ी भारतीय विद्रोह के इतिहास को पढ़ें ध्यान दें और सीखे और मनन करें। इसमें बहुत से पाठ और चेतावनियां निहित है।  

(1) क्षेत्रों की सीमा का विस्तार की नीति की समाप्ति

महारानी की घोषणा के अनुसार, “क्षेत्रों की सीमा का विस्तार” की नीति समाप्त कर दी गई और स्थानीय राजाओं के अधिकार, गौरव तथा सम्मान का अपने समान ही संरक्षण का विश्वास दिलाया गया। जिन ताल्लुकदारों ने बड़ी संख्या में विद्रोह में भाग लिया था, उसने राज भक्ति के प्रण लेकर अपनी-अपनी जागीरो में पुनः स्थापित कर दिया गया। जैसा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि यह लोग जो अपने आप को अवध का नवाब कहलाने में गर्व अनुभव करते थे वहीं ब्रिटिश साम्राज्य की स्तंभन गए।

(2) 1858 दोहरा नियंत्रण की समाप्ति 

1857 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन का नियंत्रण कंपनी से छीन कर ब्रिटिश राजमुकुट को सौंप दिया गया। परंतु जैसा कलिंघम हमने कहा था कि यह परिवर्तन औपचारिक था वास्तविक नहीं। सर हेनरी रालिन्सन जो कंपनी के एक डायरेक्टर थे और कंपनी की समाप्ति के पक्ष में थे उन्होंने ठीक ही कहा था, “इस परिवर्तन का एक बड़ा परिणाम नाम मात्र का परिणाम होगा जिससे हमें भूत-तात्कालिक, भूत को संरक्षण करने में सहायता मिलेगी। और हम नवीन बिंदु से आरंभ करके साम्राज्य के एक नवीन दौर पर अवसर मिलेंगे। इंग्लैंड में इस अधिनियम द्वारा भारतीय राज्य सचिव का प्रावधान किया गया और उसकी सहायता के लिए एक 15 सदस्यों की मंत्रिपरिषद होनी थी जिसमें से 8 सरकार द्वारा मनोनीत होते थे और शेष साज कोर्ट और डायरेक्टरी द्वारा चुने जाने थे। 1858 की घोषणा से दोहरा नियंत्रण समाप्त हो गया और सरकार ही सीधे भारतीय मामलों के लिए उत्तरदाई हो गई। 

(3) भारतीय परिषद सेवा अधिनियम पर प्रभाव

1858 की घोषणा में विश्वास दिलाया गया था कि हमारी प्रजा किसी भी जाति अथवा धर्म की क्यों ना हो वह स्वतंत्र रूप से और बिना भेदभाव के उन कार्यों के लिए जिनके लिए वह अपनी योग्यता ईमानदारी से करने के योग्य हो हमारी सेवा तथा पदों पर नियुक्ति की जाएगी। इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए 18 से 61 में भारतीय परिषद सेवा अधिनियम (Indian civil service act) बनाया गया, जिसके अनुसार प्रत्येक वर्ष लंदन में एक प्रतियोगिता परीक्षण हुआ करेगी। दुर्भाग्यवश जो विस्तृत नियम इस परीक्षा के लिए बनाए गए उनसे यह सेवा केवल अंग्रेजी की परी रक्षित बनी रहे।  

(4) सेनाओं पर प्रभाव

1857 के विद्रोह के लिए मुख्यय: भारतीय सेना ही उत्तरदाई थी। इसका पूर्णतया पुनर्गठन किया गया और इसका गठन “विभाजन और प्रति तोलन” (division and counterpoise) की नीति पर किया गया। अट्ठारह सौ इकसठ की सेना समरक्षण योजना के अनुसार कंपनी की यूरोपीय सेना सरकार को हस्तांतरित कर दी गई। यूरोपीय सैनिकों की 1857 से पहले की संख्या जो 40 हजार थी अब 65 हजार कर दी गई और भारतीय सेना जो पहले 2 लाख 38 हजार थी अब वह 1 लाख 40 हजार निश्चित कर दी गई। सीमा और तोपखाने के मुख्य पद केवल यूरोपीयन लोगों के लिए आरक्षित या निश्चित कर दिए गए। 

(5) आर्थिक शोषण का युग का आरंभ

18 57 के विद्रोह में एक युग का अंत कर दिया और एक नवीन युग के बीज बोए। प्रादेशिक विस्तार के स्थान पर आर्थिक शोषण (लूट मार) का युग आरंभ हुआ। 

(6) भारतीय परिषद अधिनियम

इस तथ्य को अधिकाधिक रुप से अनुभव किया गया कि इस विद्रोह का एक आधारिट कारण शासितों और शासकों के बीच संपर्क का ना होना था। सर बार्टल  फ्रेअर ने अपनी 1860 की प्रसिद्ध टिप्पणी में विधान परिषदों में “स्थानीय तत्वों (local elements)  के सम्मिलित करने का आग्रह किया था। ऐसा विश्वास किया गया कि भारतीयों को विधान कार्य में सहकारी बनाने से शासक भारतीयों की भावनाओं से परिचित हो सकेंगे और भ्रम दूर करने के अवसर मिल सकेंगे। इस दिशा में एक छोटा सा प्रयत्न भारतीय परिषद अधिनियम (Indian council act) द्वारा किया गया।”

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