सातवाहन काल में समाज एवं संस्कृति
दक्षिण भारत के जिन भी शासकों ने भारतीय समाज और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उसमें सातवाहन शासकों का भी विशेष महत्वपूर्ण योगदान रहा है। स्मिथ तथा भंडारकर आदि विद्वानों सात वाहनों को आंध्र निवासी मानते थे। कुछ विद्वान महाराष्ट्र को सातवाहनों का मूल स्थान भी मानते हैं। कुछ विद्वान सातवाहनों का उदय काल 300 ईसा पूर्व मानते हैं और कुछ विद्वान प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व। पुराणों के अनुसार तो सातवाहन साम्राज्य का संचालक सिमुक था। सातवाहन युगीन सभ्यता व संस्कृति निम्न प्रकार थी-
(1) धार्मिक दशा (व्यवस्था/ स्थिति)
शुंग काल की भांति सातवाहन काल में ब्राह्मण धर्म के उत्थान का काल था। इस युग में अनेक प्रकार के यज्ञ प्रचलित हुए करते थे कहा जाता है कि सातकर्णि प्रथम के दो अश्वमेध यज्ञ किए थे। दान की प्रथा बहुत अधिक प्रचलित थी और कर्मकांड की प्रधानता भी थी। ब्राह्मण धर्म के साथ ही वैष्णव धर्म और शैव धर्म भी जन्म रहे थे। इस युग के अभिलेखों में प्राप्त ‘विष्णु पालित’, विष्णु दत्त और गोपाल आदिनाम वैष्णव धर्म की प्रतिष्ठा के सूचक है। इसी प्रकार ‘शिवदत्त’, शिव भूत, भूत पाल और स्कंद आदि नाम भी प्राप्त हुए हैं। जिनसे यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में शिव की पूजा भी प्रचलित थी। तीर्थ स्थानों को अत्यधिक महत्व दिया गया था लोग तीर्थ स्थानों में स्नान करना और ब्राह्मणों को दान पुण्य - कार्य को भी समझते थे।
(2) राज व्यवस्था (व्यवस्था/ स्थिति)
सातवाहन काल में राजतंत्र ही प्रमुख शासन तंत्र था। शासन की सफलता राजा की व्यक्तिगत योग्यता पर भी निर्भर करती थी। राजा धर्म शास्त्रों में निर्धारित नियमों के अनुसार शासन करता था राजतंत्र में वंशानुगत प्रथा प्रचलित थी। सातवाहन राजा केवल राज्य की उपाधि धारण करते थे। वह राजाओं के देवी अधिकारों में विश्वास नहीं करते थे। इसलिए राजतंत्र निरंकुश नहीं था राजू को विस्तृत अधिकार प्राप्त थे वह प्रशासन का सर्वे सर्वा या सर्वोच्च अधिकारी होता था। परंतु उसे धर्म नियमों के आधार पर ही चलना होता था वह मनमानी मनमाने ढंग से नहीं चल सकता था।
राजा के जेष्ठ पुत्र को युवराज मनाया जाता था परंतु वह देश के प्रशासन में योग नहीं दे सकता था। अन्य कुमारों को राजा का प्रतिनिधि या वायसराय नियुक्त किया जाता था। सामंतों के अधीन प्रदेशों को छोड़कर समस्या साम्राज्य कोई जनपदों और ‘आहारो’ में बांटा गया था। एक ‘जनपद’ में अनेक ‘आहार’ होते थे। आहार का नाम मुख्य कार्यालय के ऊपर रखा जाता था और वहां गवर्नर को हम ‘आमाच’ कहते थे।
(3) सामाजिक दशा (व्यवस्था/ स्थिति)
सातवाहन काल में समस्त समाज को अनेक वर्गों में विभक्त किया गया था। उच्च (प्रथम) श्रेणी में ‘महारथी’ ‘महाभोज’ और ‘महासेनापति’ आते थे। सामंत भी उच्च श्रेणी में आते थे। दूसरी श्रेणी में ‘अमात्य’ महामात्र और ‘भंडारागारिक’ आदि राजकर्मचारी आते थे। इस श्रेणी में नैगम (व्यापारी), सार्थवाह (मुख्य व्यापारिक) तथा श्रेष्ठिन (अमीर व्यक्ति) आते थे। तृतीय श्रेणी में लेखक वैध, कृषक, गान्धिक आदि आते थे। चतुर्थ श्रेणी में बढ़ई, लोहार, माली, मछुआरे आ जाते थे।
सातवाहन काल में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। समाज में उन्हें गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था आवश्यकता पड़ने पर बहुत शासन की बागडोर अपने हाथों में संभाल लेती थी। माता के नाम पर संबंधित पुत्र के नाम यथा गौतमी पूर्ण सातकर्णि वशिष्टि पुत्र पुलवामा आदि स्त्रियों के गौरव की सूचना देते हैं। कदाचित स्त्रियों को प्रारंभ में ही शिक्षा दी जाती थी, स्त्रियां राज कार्य के अतिरिक्त धार्मिक कार्यों में भी भाग लेती थी। इस प्रकार कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं प्राप्त होता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि स्त्रियों में पर्दे की प्रथा भी थी।
(4) आर्थिक दशा (व्यवस्था/ स्थिति)
सातवाहन काल में दक्षिण भारत की आर्थिक स्थिति बहुत ही अच्छी थी कृषि के अतिरिक्त नाना प्रकार के उद्योग धंधे एवं व्यापार प्रचलित हुए करते थे। व्यापारियों के अलग-अलग श्रेणियां बनाई गई थी इन श्रेणियों का संगठन सातवाहन युग की बहुत बड़ी विशेषता हुआ करती है। कई श्रेणियों की उल्लेख प्राप्त होते हैं- अन्न- विक्रेताओं, जुलाहों, तेलियों, कांसे के बर्तन बनाने वाले, बांस की वस्तुएं बनाने वाले, मछुआरे, लोहारों, किसानों आदि की विभिन्न सैन्य दी थी जो उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों में ही प्रचलित थी। इस श्रेणी आधुनिक बैंकों की भांति काम करती थी लोग इनमें में रुपया जमा करते थे और उनसे ब्याज प्राप्त भी करते थे।
व्यापार-
इस युग में भारत का व्यापार उन्नत दशा में प्रचलित था। कल्याण और सोपारा व्यापारिक बंदरगाह थे। यहां से विदेशों को बहुत अधिक माल भेजा जाता था देश के अंदर नाशिक चुनार प्रतिष्ठान बनकट आदि प्रमुख व्यापारिक नगर से यह समस्त नगर एक दूसरे से सड़कों द्वार जुड़े हुए थे।
मुद्रा (रूपया) -
सातवाहन युग में मुद्राओं का बहुलता से प्रचलन हुआ करता था अनेक प्रकार के सिक्के प्रचलित थे सबसे अधिक मूल्य के सिक्के सोने की होती थी जो स्वर्ण कहे जाते थे इनका मूल्य चांदी की 35 कर्षण के तुल्य होता था कृष्णा चांदी का बना हुआ एक प्रकार का सिक्का होता था चांदी और तांबे के छोटे-छोटे सिक्के दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त होते थे।
लेन देन (आदान-प्रदान) -
सातवाहन काल में रुपया उधार देने और लेने की प्रथा भी प्रचलित हुआ करती थी। उपवदात को दो निकाय कि ‘अक्षय निधि’ में एक पर 12% और 2 पर 9% तक का वार्षिक ब्याज प्राप्त होता था आधुनिक ब्याज की दर से इसको तुलना करने पर यह प्रतीत होता है कि ब्याज की दर बहुत अधिक थी।
(5) साहित्य और कला
सातवाहन काल में साहित्य कला के क्षेत्र में अपार मात्रा में उन्नति हुई। यह सातवाहन काल प्राकृत भाषा के विकास का काल था। सातवाहन राजाओं के समस्त अभिलेख प्राकृत भाषा में ही प्राप्त होते हैं इस कार्य का सर्वश्रेष्ठ कवि ‘हाल’ था उसने सप्तशती नामक प्राकृत काव्य की रचना की।
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