सल्तनत काल (युग) की शासन व्यवस्था - letest education

 सल्तनत युग की शासन व्यवस्था  से संबंधित कुछ बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे जैसे — 

1) सल्तनत युगीन शासन व्यवस्था के बारे 

2) सल्तनत काल की शसन प्रबंध 

सल्तनत युग की शासन व्यवस्था 

सल्तनत काल में शासन व्यवस्था में प्रमुख - 

(1) सुल्तान (2) केंद्रीय शासन (3)  प्रांतीय शासन प्रमुख है।

(1) सुल्तान

दिल्ली सल्तनत के प्रमुख को सुल्तान कहा जाता है। ऐसा समझा जाता था कि संप्रभुता संपूर्ण जनता में ही निवास करती है और उसे ‘मिल्लत’ कहते थे। इस मिल्लत को सुल्तान का निर्वाचन करने का अधिकार हुआ करता था किंतु व्यावहारिक दृष्टि से देश की संपूर्ण मुस्लिम जनता को एकत्र करना असंभव था इसलिए मताधिकार पहले कुछ प्रमुख व्यक्तियों और अंत में एक व्यक्ति तक ही सीमित रह गया था लेकिन मृत्यु से पूर्व सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने का पूर्ण अधिकार था।

उत्तराधिकारी का कोई निश्चित समय या नियम न होने के कारण प्रत्येक सच्चे मुसलमान के लिए सुल्तान के पद का द्वार खुला हुआ था, किंतु व्यवहारिक दृष्टि में वह विदेशी तुर्कों तक ही सीमित था और बाद में अमीरों के एक छोटे से दल और अंत में राजवंश तक ही सीमित रह गया था ।

दिल्ली की सुल्तानपुर के निरंकुश थे और स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे। उनका मुख्य कार्य शरीयत के नियमों के अनुसार शासन का संचालन करना था। इस प्रकार सुल्तान दिल्ली सल्तनत की प्रमुख कार्यपालिका हुआ करती थी। उसका कार्य नियमों को क्रियान्वित करना ही नहीं बल्कि उनकी व्याख्या करना भी था इसके लिए उसे हदीस की भी सहायता लेनी पड़ती थी और जब भी किसी नियम के अर्थ के संबंध में विवाद होता था तो उसी विद्वान उलेमा की परामर्श को भी स्वीकार करना पड़ता था।

  सुल्तान न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वह राज्य में न्याय का स्रोत माना जाता था। वह सेना का सर्वोच्च सेनापति भी था वास्तव में उसकी शक्तियां असमी थी वह पूर्णतया निरंकुश एवं स्वच्छता रे था उसकी शक्तियों पर कोई नियंत्रण नहीं था। उसकी शक्ति का आधार धार्मिक तथा सैनिक था। जब तक वह कुरान के नियमों का पालन करता था उसकी सत्ता सर्वोच्च थी। दिल्ली के कुछ सुल्तान जैसी अलाउद्दीन खिलजी और कुछ समय के लिए मोहम्मद बिन तुगलक ने कुरान के नियमों की अवहेलना कर निरंकुशता पूर्वक शासन किया और उन्हें अपदस्थ करने का साहस किसी को न हुआ क्योंकि उन्हें शक्तिशाली सेना का समर्थन प्राप्त था इस प्रकार सुल्तान को कुरान के नियमों की अवहेलना करने पर भी अपदस्थ नहीं किया जा सकता था।

(2) केंद्रीय शासन

सल्तनत काल में शासन कार्य में सुल्तान को सहायता देने के लिए अनेक मंत्री गण होते थे। जिनमें प्रमुख मंत्री यह थे- 

(१) नायब

 नायब; का पद सुल्तान से नीचा तथा वजीर से ऊंचा होता था। दुर्बल, अयोग्य और अल्पवयस्क  शासकों के समय में किसी योग्य कुशल तथा दूरदर्शी सरदार को नायब का पद प्रदान किया जाता था परंतु कभी-कभी शक्तिशाली सुल्तान भी किसी व्यक्ति को विशेष प्रतिष्ठा प्रदान करने के लिए नायक का पद दे देते थे जैसा कि अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में किया था। नायब सुल्तान के नाम पर सुल्तान की समस्त शक्तियों का प्रयोग करता था और शासन के समस्त विभागों का निरीक्षण तथा नियंत्रण करता था।

(२) वजीर

 सुल्तान का प्रधानमंत्री ‘वजीर’ कहलाता था। वह सुल्तान तथा जनता के बीच मध्यस्थ का कार्यकर्ता था। वह कुछ प्रतिबंधों के अंतर्गत सुल्तान की शक्ति तथा विशेष अधिकारों का प्रयोग किया करता था। वह सुल्तान के परामर्श से महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था। और सुल्तान की अनुपस्थिति में शासन कार्य का संचालन भी करता था वह सुल्तान को शासन संबंधी मामलों में परामर्श भी दिया करता था वह ‘वित्त विभाग’ का अध्यक्ष होता था। उसके विभाग को ‘दीवान - ए - वजारत’ कहते थे। वह लगान संबंधी नियमों का निर्माण करता था और राज्य की आय एवं व्यय का निरीक्षण भी करता था। सैनिक व्यवस्था पर भी उसका नियंत्रण हुआ करता था वह सैन्य विभाग के समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करता था उसका पद अत्यंत महत्वपूर्ण था और प्रशासन के प्रत्येक के विभाग में उसका थोड़ा बहुत नियंत्रण अवश्य ही हुआ करता था।

वजीर के अधिनस्थ मैं भी अनेक कर्मचारी होते थे जिनमें तीन अधिकारी अत्यंत महत्वपूर्ण थे— 

नायब वजीर- वजीर की सहायता के लिए ही हो नायक वजीर हुआ करता था‌। वह  वजीर की अनुपस्थिति में उसके कार्यों का संचालन भी करता था।

मुशरिफ-ए-मुमालिक- नायब वजीर के नीचे मुशरिफ-ए-मुमालिक अर्थात महा लेखाकार होता था। यह प्रांतों तथा अन्य विभागों से होने वाली आय का लेखा-जोखा करता था।

मुस्तौफी - ए - मुमालिक - यह अधिकारी महालेखा परीक्षक होता था। यह मुशरिफ के देखें जोखे का निरीक्षण एवं विवाह की जांच करता था। फिरोज तुगलक के शासन काल में महालेखाकार की सहायता के लिए एक नाजिर हुआ करता था। इन अधिकारियों के विशाल कार्यालय होते थे जिनके लिपिक कार्य करते थे।

(३) दीवान - ए - रसातल 

यह मंत्री के कार्य के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। डॉ० कुरैशी का मत है कि इसका संबंध धार्मिक मामलों से था यह धार्मिक मामलों से संबंधित कार्यों को करता था। इसके अतिरिक्त विद्वानों तथा धार्मिक व्यक्तियों को जो आर्थिक सहायता दी जाती थी उसका भी बाहर इसी पद पर था।

(४) काजी - उल - कुजात

सल्तनत काल में यह पद प्रायः सद - उस - सूदुर के हाथ में रहता था न्याय विभाग की सर्वोच्च पदाधिकारी को काजी - उल - कुजात कहते थे उनका कार्य राज्य भर में न्याय प्रशासन का संचालन करना था।

(५) शाही गृह - प्रबंधक 

सल्तनत काल में यह सुल्तान के ग्रहों विभाग का अध्यक्ष होता था और उसकी व्यक्तिगत मामलों के देखा करता था किंतु शासन पर भी उसका व्यापक प्रभाव रहता था शाही अंगरक्षक और गुलाम जो सरे जांदार तथा दीवाने ए दागान नामक पदाधिकारियों के अधीन थे उसी के नियंत्रण में कार्य करते थे।

सल्तनत काल (युग) की शासन व्यवस्था - letest education


(3) प्रांतीय शासन 

डॉ० आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक दिल्ली सल्तनत में लिखा है, “दिल्ली सल्तनत कभी भी एक से प्रांतों में व्यक्त नहीं थी और उन सब की शासन व्यवस्था ही एक ढंग से की थी। कभी किसी सुल्तान ने प्रांतों को समान अधिकार पर संगठित करने का विचार नहीं किया। 13 वीं शताब्दी से सल्तनत सैनिक क्षेत्रों में विभक्त थी; जो ‘इक्ता’ कल आते थे। प्रत्येक इक्ता मुफ्ति अथवा शक्तिशाली सैनिक पदाधिकारी के अधीन होता था।” 

अलाउद्दीन खिलजी के काल में दिल्ली सल्तनत में तीन प्रकार के ‘इक्ता’ या ‘प्रांत’  थे। इसके अधिकारी बली और कभी-कभी अमीर कहलाते थे। खिलजी तथा तुगलक संस्थानों के शासनकाल में बंगाल गुजरात जौनपुर मालवा खानदेश तथा दक्षिण सबसे महत्वपूर्ण सैनिक प्रांत थे। ‘मुफ्तियों’ तथा ‘बलियों’ दोनों को अपने अपने अधिकार क्षेत्र में सेनाएं रखनी पड़ती थी। इनका कार्य अपने प्रांत में शक्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करना और जमीदारों के विद्रोह का दमन करना था यह अपने अधीनस्थ अधिकारियों को नियुक्त करने का भी अधिकार रखते थे अपने अधीनस्थ प्रदेशों के शासन का उत्तरदायित्व इन्हीं पर होता था। जब तक वह सुल्तान के आदेशों का पालन करते थे और आवश्यकतानुसार सैनिक सहायता देते रहते तब तक वह असीमित शक्ति का उपभग करते थे उन्हें अपनी आय व्यय का लेखा रखना पड़ता था और बचत का धन शाही राजकोष में जमा करना पड़ता था।

सल्तनत युग में प्रांतीय शासक अपनी इच्छा से पड़ोसी राजाओं पर आक्रमण कर सकते थे दुर्बल सुल्तानों के समय में वे वास्तविक शासकों जैसा व्यवहार करते थे तथा असीमित अधिकारों का उपभोग करते थे फिरोज तुगलक के शासन काल में कुछ प्रांतीय शासक स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे थे।

प्रत्येक प्रांत में अनेक अधिकारी होते थे जिनमें नाजिर तथा वाकुफ  प्रमुख हुआ करते थे। इनके अतिरिक्त ‘साहिब - ए-  दीवान’ तथा ख्वाजा नामक एक उच्च पदाधिकारी होता था वह सुल्तान के प्रति उत्तरदाई होता था प्रांतों के काजी तथा अन्य निम्न श्रेणी के कर्मचारी भी होते थे।




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