राज्य का बहुलवादी सिद्धांत से संबंधित कुछ बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे जैसे —
1) राज्य के बहुलवादी सिद्धांत की व्याख्या
2) बहुलवाद की उत्पत्ति के सहायक तत्व कौन - कौन से हैं
राज्य का बहुलवादी सिद्धांत
राज्य का बहुलवादी सिद्धांत; संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च सकती है। संप्रभुता की परंपरागत धारणा जिसका प्रतिपादन बोदां, हाब्स तथा आस्टिन आदि विचारकों ने किया है, एक राज्य में एक सर्वोच्च शक्ति की कल्पना करती है। इसे सर्वशक्ति के आधार पर राज्य आंतरिक और बाह्य क्षेत्र में संप्रभु होता है तथा सबसे ऊपर होता है और उस पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है। आंतरिक क्षेत्र में सब व्यक्ति और समुदाय राज्य की आज्ञा मानने के लिए वादे होते हैं तथा क्षेत्र में कोई शक्ति इससे ऊपर नहीं होती है। यह संप्रभुता सीमित, सर्व व्यापक, मौलिक, अदेय, अविभाज्य, स्थाई तथा अनन्य होती है। संप्रभुता का दृष्टिकोण परंपरागत है और इसे एकत्ववाद भी कहा जाता है। बहुलवाद संप्रभुता के इसी परंपरागत दृष्टिकोण के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। यह संप्रभुता की एकल्तावादी धारणा का खंडन करती है। संक्षेप में कहें तो, बहुलवाद को संप्रभुता की अद्वैत वादी धारणा के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाए रखना चाहती है किंतु राज्य की संप्रभुता का अंत करना श्रेयस्कर समझती है।
राज्य का बहुलवादी सिद्धांत बीसवीं शताब्दी की ही विचारधारा है। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्व प्रदान करती है। तथा सामाजिक जीवन में मानव द्वारा बनाए गए ऐच्छिक समुदायों को उच्च स्थान प्राप्त देती है। वह राज्य संप्रभुता का विरोध करती है। सिद्धांत के अनुसार समाज के सभी संगठन और समुदाय अपने उद्देश्य उसी प्रकार महत्वपूर्ण है जिस प्रकार राज्य है, अतः सभी समुदायों को राज्य के समान पूर्ण सदस्य प्राप्त होनी चाहिए तथा संप्रभुता राज्य की धरोहर नहीं है। जो सिद्धांत स्थिति पर बल देता है कि संप्रभुता को राज्य था अन्य समुदायों में विभाजित कर देना चाहिए।
बहुलवाद की उत्पत्ति के सहायक तत्व
बहुलवाद की जन्म के लिए अनेक परिस्थितियों उत्तरदाई थीं। मध्य युग में जब राष्ट्रीय राज्य अत्यधिक शक्तिशाली बने तथा व्यापारी और शिल्प समुदायों के अधिकार समाप्त होने लगे तो इन 100 शासित समुदायों ने स्वतंत्रता तथा अधिकारों की प्राप्ति के प्रयत्न किए तथा इन पर्यटकों ने बहुलवादी विचार को विकसित किया। इसी प्रकार चर्च के समर्थकों ने राज्य का विरोध कर चर्च की स्वतंत्र अधिकारों का समर्थन किया। इसके बाद जब आदर्शवादी ने राजीव को पुनः उचाई पर पहुंचा कर इसे ईश्वर का पृथ्वी पर आगमन माना तब इसके विरोध में बहुलवाद विकसित हुआ। प्रजातंत्र और व्यवसायिक प्रतिनिधित्व के विचार से भी से बल प्राप्त हुआ। आधुनिक युग में राज्य की व्यापक कार्य क्षेत्र से जब व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होने लगा तब भी बहुलवाद की प्रक्रिया विकसित हुई। आर्थिक समुदायों के महत्व तथा उन अधिकारों की मांग ने तथा गिल्ड समाजवाद व श्रमिक संघवाद आदि विचारधाराओं बहुलवाद के विकास में सहायता प्रदान की। बहुलवाद राज्य को समाप्त करना नहीं चाहता था बल्कि राज्य की संप्रभुता को सीमित या विभाजित करना चाहता था। इनके अनुसार संप्रभुता एकल्तावादी न होकर बहुलवादी होनी चाहिए अर्थात संप्रभुता राज्य तथा अन्य समुदायों मैं विभाजित होनी चाहिए।
आधुनिक सभ्य समाज में एकत्ववादी संप्रभुता का विचार और सभ्यता का द्योतक है। संक्षेप में बहुलवादी विचारधारा के विकास में निम्न प्रकार के तत्व सहायक रहे हैं—
(1) हीगलवादी राज्य के विरुद्ध प्रतिक्रिया ।
(2) राज्य की योग्यता का सिद्धांत ।
(3) लोकतंत्र में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था से असंतोष।
(4) मध्यकालीन संघवादी विचारकों का प्रभाव।
(5) श्रमिक वर्गों का क्रमिक विकास।
(6) अंतरराष्ट्रीय वाद का विकास।
(7) विधि शास्त्रीय तत्वों का विकास।
(8) व्यक्ति वादी तत्वों की प्रधानता।
(9) आधुनिक युग की विचारधारा है।
राज्य की संप्रभुता पर बहुलवादी आक्षेप
बहुलवाद निम्न प्रकार के तत्वों के आधार पर राज्य संप्रभुता की धारणा का खंडन करता है—
1. कानून के आधार पर
बहुलवाद इस बात का खंडन करता है कि कानून संप्रभुत्व के आदेश है। राज्य कौन-कौन हो तो जन्म देता है और न कानून के बीच राज्य की शक्ति ही रहती है कानून सामाजिक आवश्यकताओं के प्रतीक होते हैं तथा मनुष्य उनका पालन इसलिए करते हैं क्योंकि इसमें अपना हित रखते हैं। इनसे सामाजिक एकता बन जाती है इसलिए इनका पालन किया जाता है। डिग्वी राज्य का तत्व संप्रभुता न मानकर समाज सेवा मानते हैं। उनके अनुसार संप्रभुता स्वयं कानून से निर्मित होती है। कौन कहता है कि राज्य कानून को जन्म देता है? स्वयं कानून का जन्म कानून से होता है। कानून राज्य के ऊपर तथा उससे से श्रेष्ठ है। सामाजिक आवश्यकता और सामाजिक एकता कानून को जन्म देती है। कान के पीछे समाज की बाध्यकारी शक्ति होती है इनका पालन इन से लाभ प्राप्त करने के कारण किया जाता है। कानून का स्थान राज्य से श्रेष्ठ होता है और यह राज्य से स्वतंत्र होते हैं, इसलिए कानून को संप्रभु का आदेश कहना सही नहीं है।
2. अंतर्राष्ट्रीयता के आधार पर
अंतरराष्ट्रीय वाद के समर्थक विद्वानों ने अंतरराष्ट्रीय था के आधार पर भी संप्रभुता के विचार का खंडन किया है। आज के युग में सभी सभ्य देश अंतर्राष्ट्रीय नियमों और कानूनों का पालन करते हैं। राजनीतिक दृष्टि से भी राज्य एक- दूसरे के अधिकारों से सीमित हैं। अंतरराष्ट्रीय कानून नियम परंपरा एवं संधि समझौते हाथी राज्य की संप्रभुता की बाह्य धारणा को सीमित करते हैं और संप्रभुता अंतरराष्ट्रीय सहयोग तथा विश्व शांति के लिए विकट समस्या है। यह युद्ध का संघर्ष का कारण है। नॉर्मन एन्जिलस तो इसे अदृश्य हत्यारा कहता है। आज जब विज्ञान के विकास ने राज्यों को एक दूसरे के निकट ला दिया है राज्य एक दूसरे पर निर्भर करते हैं राज्यों में सहयोग बढ़ रहा है तथा अंतरराष्ट्रीय तथा विकसित हो रही है तो एक पूर्ण संप्रभुता संपन्न राज्य की कल्पना त्रुटिपूर्ण तथा हानिकारक है। इस प्रकार बहुलवाद राज्य की एकत्ववादी परंपरागत संप्रभुता की धारणा का खंडन करता है।
3. ऐतिहासिक आधार पर
बहुलवादियों के अनुसार ऑस्टिन द्वारा वर्णित संप्रभुता वाले राज्य इतिहास में कभी नहीं रहे हैं। आता हो निरंकुश संप्रभुता का विचार उचित एवं व्यवहारिक नहीं है और इसे त्यागना ही श्रेयस्कर है। ‘ऑस्टिन’ के द्वारा प्रतिपादित संप्रभु शक्ति संपन्न निरंकुश शासक के रूप में हम महाराजा रणजीत सिंह को ले सकते हैं परंतु उन्होंने भी सिख धर्म की सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध कार्य करने का प्रयत्न नहीं किया बल्कि उन्हें उचित आदर सम्मान दिया। बधाई हो गया नितांत गलत है कि संप्रभुता की शक्ति पूर्णतया अनियंत्रित होती है।
4. व्यक्ति के विकास के आधार पर
बहुल वादियों के अनुसार संप्रभुता का विचार व्यक्ति के विकास में बाधा है अथवा व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए संप्रभुता का विचार समाप्त अथवा सीमित किया जाना चाहिए।
5. सामाजिक संरचना के आधार पर
समाजशास्त्रीय न्याय विधु ने समाज की रचना के आधार पर ऑस्टिन के संप्रभुता के सिद्धांत की आलोचना की है। उनके अनुसार समाज का संगठन संघात्मक है। इसमें राजनीतिक सामाजिक आर्थिक राजनीतक संगठन होते हैं। यह सभी संगठन व्यक्ति के विकास में सहायक होते हैं। अथवा इन सभी को अपने-अपने क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होनी चाहिए। वस्तु तो हो वर्तमान समय में सामूहिक रूप से यह सभी समुदायों के कार्य राज्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। कोल के शब्दों में, “सामूहिक रूप से इन सभी समुदायों के कार्य राज्य की अपेक्षा बहुत बढ़ जाते हैं।”
6. अन्य समुदायों के अधिकारों के आधार
बहुलवाद इस विचार का खंडन करता है कि संप्रभुता पूर्ण निरंकुश तथा एकलत्वादी है। बहुलवाद के अनुसार यह विचार क्षत्रिय नहीं है कि राज्य सर्वोच्च और संप्रभुता संपन्न संस्था है। मनुष्य समाज में रहता है तथा अपने विभिन्न हितों की पूर्ति के लिए वह अन्य समुदायों को जन्म देता है। मनुष्य की सेवा करते हैं। राजू मनुष्य के संपूर्ण प्रतिनिधित्व का दावा नहीं कर सकता है और ना ही राज्य के माध्यम से मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। राज्य विभिन्न समुदायों में से एक है। अन्य सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक, आर्थिक व सांस्कृतिक समुदाय भी उतना ही महत्व रखते हैं जितना कि राज्य रखता है। वस्तुत: राज्य को इन समुदायों के ऊपर कोई विशेष अधिकार नहीं है।
निष्कर्ष — सभी विवरण से स्पष्ट है कि बहुल वादियो ने ऑस्टिन के एकल वादी संप्रभुता सिद्धांत की अनेक आधारों पर आलोचना की है इन आलोचनाओं में सत्य का समावेश है परंतु बहुलवादी विचारक लॉसकी तथा कॉल को भी अंत में इस बात पर सहमत होना पड़ा कि राज्य एक सर्वोच्च समुदाय है तथा अन्य समुदाय राज्य के नियंत्रण तथा निर्देशन में ही समुचित रूप से कार्य कर सकते हैं अतः संप्रभु शक्ति के केवल राज्य में ही नहीं हो सकती है अन्य समुदायों में नहीं।
महत्वपूर्ण अति लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर
राज्य का बहुलवादी सिद्धांत क्या है?
संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च सकती है। संप्रभुता की परंपरागत धारणा जिसका प्रतिपादन बोदां, हाब्स तथा आस्टिन आदि विचारकों ने किया है, एक राज्य में एक सर्वोच्च शक्ति की कल्पना करती है।
बहुलवादी विचारक कौन-कौन है ?
बहुलवादी विचारक - फिगिस, डिग्विट, क्रेव, पाल बंकर, ए. डी. लिण्डले, डरखैम, कोल, मैटलैण्ड आदि।
बहुलवादी विचारधारा क्या है?
संक्षेप में कहें तो, बहुलवाद को संप्रभुता की अद्वैत वादी धारणा के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाए रखना चाहती है किंतु राज्य की संप्रभुता का अंत करना श्रेयस्कर समझती है।
बहुलवादी विचारधारा के विकास के सहायक तत्व क्या है?
(1) हीगलवादी राज्य के विरुद्ध प्रतिक्रिया । (2) राज्य की योग्यता का सिद्धांत । (3) लोकतंत्र में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था से असंतोष। (4) मध्यकालीन संघवादी विचारकों का प्रभाव। (5) श्रमिक वर्गों का क्रमिक विकास।
संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत का समर्थक कौन है?
संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत का समर्थक कॉल ,लॉसकी, मैकाइवर, बार्कर आदि थे।
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