वैदिक युगीन वर्ण व्यवस्था तथा भारत में वर्ण व्यवस्था - varnashram

वैदिक युगीन वर्ण व्यवस्था तथा भारत में वर्ण व्यवस्था से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करेंगे जैसे — 

(1) वैदिक युगीन वर्ण व्यवस्था 
(2) भारत में वर्ण व्यवस्था
(3) ज्ञग्वैदिक योगी वर्ण व्यवस्था
(4) पुरुष -सूक्त में वर्णित वर्ण व्यवस्था 
(5) वर्ण व्यवस्था का प्राथमिक स्वरूप 
(6) ब्राह्मण के कार्य

वैदिक युगीन वर्ण व्यवस्था 
(varnashrama system in ancient india)

(1) ज्ञग्वैदिक योगी वर्ण व्यवस्था

varnashram ; रिग्वैदिक काल के प्रारंभिक में वर्ण व्यवस्था विद्यमान नहीं थी इस युग में समाज में केवल 2 वर्ग के थे नंबर 1 आर्यन नंबर दो अनार्य यह दोनों वर्ग एक दूसरे से विपरीत थे तथा इन दोनों के बीच बहुत अंतर था। 

वैदिक युगीन वर्ण व्यवस्था तथा भारत में वर्ण व्यवस्था - varnashram

         समाज की गति आर्य और अनार्य इन दोनों वर्गों या वर्गों के आधार पर चल रही थी कुछ समय पश्चात व्यवसाय और कार्य प्रगति के कारण वर्गीकृत हो गया फल स्वरूप ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र यानी हरिजन नामक चार वर्गों का उदय हुआ।

       पहला वर्ग मंत्र रचना मंत्र पाठ या गीत कार्य तथा पौरोहित्य से संबंधित था इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया दूसरा वर्ग युद्ध विद्या में निपुण युद्धों में भाग लेने वालों समाज और राष्ट्र की रक्षा करने वालों से संबंध था यह वर्ग क्षत्रिय कहलाया तीसरा वर्ग कृषि वाणिज्य व्यापार तथा व्यवसाय से संबंधित था यह वर्ग वैश्य कहलाया युद्ध में पराजित अनार्य दास या दस्यु कहलाए हेलो समाज की सेवा के लिए नियोजित किए गए यह वर्ग शूद्र यानी हरिजन कहलाया।

        पुरुष -सूक्त में वर्णित वर्ण व्यवस्था

ऋग्वेद के प्रथम 9 मंडलों मे इन चार वर्गों का उल्लेख नहीं हुआ। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में इन चारों वर्गों का उल्लेख मिलता है पुरुष सूक्त में चारों वर्णों की उत्पत्ति विहार पुरुष की विभिन्न रंगों में बताई गई है पुरुष सूक्त के अनुसार विराट पुरुष के मुख में से ब्राह्मण उसकी भुजाओं से सच्चाई है जलगांव से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए इन वर्गों का शरीर के विभिन्न अंगों से तुलनात्मक संबंध तथा जिस कर्म से उनका नियोजन किया गया है यह तत्कालीन समाज में उनकी क्रमानुसार स्थिति का परिचायक है।

 (1) ब्राह्मण (Brahmin)

 ऋग्वेद में ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अनेक बार किया गया है तू एक वर्ग अथवा समूह की और भी संकेत करता है यज्ञ मंत्र प्रार्थना अधिकारियों में संलग्न वर्ग के ब्राह्मण के अंतर्गत स्वीकार किया गया उसे सोमपान करने तथा वार्षिक यज्ञ में मंत्र पाठ करने वाला माना गया वह विद्वान मनीषी भी स्वीकार किया गया है।

(2) क्षत्रिय (Kshatriya)

 क्षत्रिय शब्द का प्रयोग भी ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर हुआ है युद्ध में भाग लेने वाले युद्ध विद्या में निपुण राष्ट्र की रक्षा करने वाले लोगों को 17 के अंतर्गत स्वीकार किया गया राज्य शब्द भी छात्रों के लिए प्रयुक्त किया जाता था इस प्रकार छत्रिय वर्ग मुखी तो हो युद्ध प्रशासन और शौर्य से संबंधित था यह लोग प्रकाश किए कार्यों में भी दक्ष होते थे।

(3) वैश्य (Vaishya) 

वैसे शब्द का प्रयोग ऋग्वेद की केवल पुरुष सूक्त में मिलता है यह वर्ग कृषि वाणिज्य व्यापार तथा व्यवसाय में संलग्न था ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्षों की तुलना में इस वर्ग का कोई विशेष महत्व नहीं था।

(4) शूद्र ( हरिजन) (Shudra)

शूद्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के केवल पुरुष सूक्त में मिलता है में पराजित अनार्य शुद्र वर्ग के रूप में स्वीकार किए गए संभवत यह वर्ग पारिवारिक सेवकों और परिचारिका का प्रतिनिधित्व करता था इनका स्तर निम्न था फिर भी यह वर्ग तत्कालीन जीवन में अपना महत्व रखता था इस योग में सूर्य द्वारा ब्राह्मणों को दिया जाने वाला दान ग्रह था ग्रह ऋग्वेद से ज्ञात होता है की बलभुत नामक दास ने एक ब्राह्मण को 100 गाय दान मैं दी थी। इस प्रकार इस युग में शूद्र अनार्य होते हुए भी समाज में सहयोगी वर्ग के रूप में था सूत्रों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था।


वर्ण व्यवस्था का प्राथमिक स्वरूप 

रिग वैदिक युग में वर्ण व्यवस्था का प्रारंभिक स्वरूप सरल और लचीला था इस युग में वर्ण व्यवस्था करना और कार्य विभाजन पर आधारित थी ना कि जन्म के आधार पर अपने कार्य में कोई व्यक्ति ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य हो सकता था आवश्यकतानुसार लोग अपना व्यवसाय भी बदल सकते थे वर्णों में आपसी खानपान तथा वैवाहिक संबंधों पर भी किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं था एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग व्यवसाय कर सकते थे और किसी वर्ग विशेष की व्यक्ति के लिए दूसरा व्यवसाय करने पर कोई प्रतिबंध नहीं था ऋग्वेद में एक ब्राह्मण ऋषि कहते हैं कि मैं मंत्र निर्माता हूं मेरे पिता और मेरी माता पत्थर की चक्की से अनाज पीसने वाली है इससे स्पष्ट होता है कि वैदिक युग में वर्ण व्यवस्था कर्म प्रधान थी जन्मजात नहीं।


(2) उत्तर वैदिक युगीन वर्ण व्यवस्था 

उत्तर वैदिक युग में वर्ण व्यवस्था अधिक स्पष्ट और दृढ़ हो गई इस युग में वर्ण व्यवस्था काफी विकसित हो चुकी थी अथर्ववेद में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा सूत्र नामक चार वर्गों का उल्लेख है इस युग में वर्गों के मध्य अंतर का स्पष्ट उल्लेख मिलता है ब्राह्मण के लिए सूट के यज्ञोपवीत छत्रिय के लिए सनके और वैश्य के लिए उन के यज्ञोपवीत धारण करने की व्यवस्था की गई थी इसी प्रकार ब्राह्मण के लिए बसंत ऋतु में क्षत्रिय के लिए ग्रीष्म में तथा वैसी के लिए शीत ऋतु में अग्निहोत्र की व्यवस्था की गई थी इन भेद परक निर्देशों से विभिन्न वर्गों की अंतर स्पष्ट की गई थी।


(1) ब्राह्मण

 उत्तर वैदिक युग मैं ब्राह्मणों का अत्यधिक महत्व था समाज में उनकी स्थिति सर्वश्रेष्ठ हो गई थी उसे दिव्य वर्ण क्या बताया गया है उसकी समस्त सुविधाओं का ध्यान रखा जाता था वह अपने ज्ञान धार्मिक स्थलों तथा मंत्रों के कारण प्रभावशाली था अत्रेय ब्राह्मण में कहा गया है कि रोहित के बिना अर्पित की गई राजा की आरतियां देवताओं को स्वीकार नहीं थी उस युग में ब्राह्मण ही प्रयोग रोहित होते थे राजसूय यज्ञ जैसे समारोह की संपन्नता बिना ब्राह्मण के स्तुति गान के संभव नहीं थी।

ब्राह्मण के कार्य 

 ब्राह्मण अध्यापन कार्य तथा यज्ञ कार्य में संलग्न रहते थे उसके लिए विद्यार्थी जीवन आवश्यक था। पौरोहित्य संभवत वंशानुगत था इस युग में प्रयोग ब्राह्मण ही पुरोहित कर सकते थे राजा के लिए पुरोहित कर रखना अनिवार्य था ब्राह्मण ग्रंथों में कहा गया है कि बिना पुरोहित के राजा का देवता से नहीं स्वीकार करते थे।

(2) क्षत्रिय

 छत्रिय वर्ग राजकुल से संबंधित था। क्षत्रिय लोग युद्ध विद्या तथा प्रशासनिक कार्य में निपुण होते थे यीशु के शासक केवल राधा ही नहीं थे बल्कि हुए उनको उच्च कोटि के शिक्षक दार्शनिक और विद्वानों के संरक्षण थे विदेश शासक जनक परिवहन जय बलि अश्वपति कैकई तथा काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे ही दीवान अचार्य शासक थे जिन्होंने विद्या और शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक सफलता प्राप्त की थी अनेक शासक पुरोहित या गीत क्रियाओं तथा दार्शनिक चिंतन में पारंगत थे तथा उन्होंने ब्राह्मणों को शिक्षा प्रदान की क्षत्रिय शासक विदेश नरेश जनक से याज्ञवल्क्य ने स्वयं ज्ञान प्राप्त किया था उनके निर्देशन में विद्वान की गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था जिनमें दर्शनशास्त्र पर विचार विमर्श किया जाता था जनक ने धर्म दर्शन के वाद-विवाद में ब्राह्मणों को प्रास्त किया था।

(3) वैश्य

इस वर्ग में वैश्य वर्ग का विकास हो चुका था समाज में इस वर्ग का स्थान ब्राह्मण क्षत्रिय पिक्चर निम्न था इसे अंश यकृत कहा गया है इसे स्पष्ट होता है कि वह स्वर्ग का स्थान ब्राह्मणों से 3 वर्ग के बाद ईश्वर का मुख्य कार्य कृषि और पशुपालन था ईश्वर के लोगों की सबसे बड़ी इच्छा गांव का मुखिया बनने में थी उन्हें यज्ञ  करने का भी अधिकार था।

(4) शूद्र (हरिजन)

 सूत्रों का स्थान समाज में चौथा था । यह निम्नतम वर्ण था सूत्रों का प्रधान कार्य उपयुक्त तीनों वर्गों की सेवा करना था वह पारिवारिक सेवक के रूप में कार्य करता था शुद्र के लिए कहा गया है कि सुधर जाए कितना भी धन संपन्न और रेवा संपन्न हो दूसरे का नौकर होने के अतिरिक्त और और कुछ नहीं हो सकता अपने से ऊंचे वर्ण वालों की सेवा करना और सेवक के रूप में कार्य करना उसका प्रधान कर्म था वह यज्ञ नहीं कर सकता था शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि “शूद्र असत्य हैं शूद्र भ्रम है”। 


इसे तो जरूर से जानेवर्ण व्यवस्था क्या है? और और वर्ण व्यवस्था की विशेषता

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