संसदात्मक शासन - अर्थ , गुण तथा दोष - letest education

 संसदात्मक शासन प्रणाली का अर्थ 

संसदात्मक शासन प्रणाली का अर्थ ; संसदात्मक शासन प्रणाली उसे कहते हैं जिसमें कार्यपालिका संसद के नियंत्रण में रहती है ।इस सरकार में देश के संपूर्ण शासन का कार्यभार मंत्रिपरिषद पर होता है और वह अपने कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई होते हैं ।वस्तुतः देश की वास्तविक कार्यपालिका मंत्री परिषद ही होती है उस पर संसद का नियंत्रण आवश्यक होता है ।देश का प्रधान (राष्ट्रपति) नाम मात्र का प्रधान होता है ।उसे कार्यपालिका से संबंधित समस्त अधिकार प्राप्त होते हैं किंतु व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो वह उनका स्वेच्छा से प्रयोग नहीं कर पाता है।

प्रो ० गवर्नर के अनुसार — “संसदात्मक या मंत्रिमंडल आत्मक शासन प्रणाली वह प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका (मंत्रिपरषद) अपनी राजनीतिक नीतियों कार्यों के लिए विधानमंडल या उसके एक सदन प्रायः लोकप्रिय सदन के प्रति प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से और निर्वाचक ओं के प्रति अंतिम रूप से उत्तरदाई होती है जबकि नाम मात्र की कार्यपालिका राज्य का प्रमुख ऑन उत्तरदायित्व की स्थिति में रहती है।”

    भारत और ग्रेट ब्रिटेन में इसी प्रकार की सरकारें विद्यमान है इस प्रकार के शासन को मंत्रीमंडलात्मक उत्तरदाई शासन भी कहा जाता है।

संसदात्मक शासन - अर्थ , गुण तथा दोष - letest education

संसदात्मक/संसदीय शासन प्रणाली के गुण 

संसदात्मक शासन प्रणाली के गुण ; संसदात्मक शासन प्रणाली को उत्कृष्ट शासन प्रणाली के रूप में स्वीकार किया जाता है। शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषताएं है- 

(1) कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में सहयोग

शासन प्रणाली में कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका में एक दूसरे के प्रति पूर्ण सहयोग की भावना होती है क्योंकि मंत्री परिषद के ही सदस्य विधान मंडल के भी सदस्य होते हैं इसी कारण कार्यपालिका उन कानूनों को बड़ी सरलता से पारित करवा लेती है जिन्हें वह देश के लिए उपयोगी समझती है इस प्रकार व्यवस्थापिका को देश की आवश्यकता अनुसार कानून बनाने में भी सहायता मिलती है।

(2) कार्यपालिका निरंकुश नहीं हो पाती

शासनकाल में कार्यपालिका निरंकुश नहीं हो पाती है क्योंकि उसे किसी भी कानून को पारित करवाने के लिए व्यवस्थापिका पर आश्रित रहना पड़ता है। वह स्वेच्छा से किसी भी कानून को बनाकर तथा उसे देश में लागू करने निरंकुश नहीं बन सकती है। इसके अतिरिक्त व्यवस्थापिका कोई होगी अधिकार है कि वह मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके उसे अब दस्त कर दे  विधायिका मंत्रियों से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न भी पूछ सकती है।

(3) परिवर्तनशीलता

 संसदात्मक सरकार की सर प्रमुख विशेषता और इसकी परिवर्तनशील ता है इसका तात्पर्य है कि इसमें कार्यपालिका को बदलने मैं किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि कार्यरत मंत्री परिषद को किसी भी समय परिवर्तित किया जा सकता है।

(4) राजनीतिक शिक्षा का साधन

 शासन प्रणाली में राजनीतिक दलों की बहुलता होती है। विश्वविद्यालय सामान्य जनता के समक्ष अपने-अपने कार्यक्रम रखकर उनमें राजनीतिक चेतना को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं।

(5) लोकमत एवं लोक- कल्याण पर आधारित

 संसदात्मक शासन प्रणाली प्रजातंत्र प्राणी का ही ग्रुप है इसलिए यह लोग मत का ध्यान रखते हुए लोक कल्याणकारी कार्य करने का प्रयत्न करती है प्रोफेसर डा ए सी के अनुसार एक संसदात्मक सरकार को स्थिति की आवश्यकता के अनुसार अवश्य ही संसद के विचार के प्रति सूक्ष्म रूप से सचेत तथा उत्तरदाई होना चाहिए और परी कल्पनाओं को पूरा करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए जिन पर मंत्री परिषद का जीवन आधारित है।

(6) लोकतंत्र के सिद्धांतों की रक्षा

लोकतंत्र के सिद्धांतों की रक्षा बहुत सीमा तक संसदात्मक शासन व्यवस्था में ही संभव है क्योंकि संसदात्मक शासन व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों की प्रत्यक्ष जवाबदेही जनता के प्रति होती है।

(7) व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका में घनिष्ठता

संसदात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका अथवा मंत्री परिषद के सदस्य संसद के किसी न किसी सदन के सदस्य अनिवार्य रूप से होते हैं अतएव व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका के बीच संबंधों की घनिष्ठता पाई जाती है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री संसद के निम्न सदन में बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है अत एव संसद पर मंत्रिमंडल का पूरा-पूरा नियंत्रण या प्रभाव होता है। इसी दृष्टि से भी व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है।

(8) शासन व्यवस्था की कुशलता 

संसदात्मक शासन प्रणाली में मंत्रिमंडल के सदस्य अत्यंत ही योग्य अनुभवी तथा कुशल होते हैं अत एवं संसदात्मक शासन प्रणाली में प्रशासकीय कुशलता पाई जाती है।

संसदात्मक/संसदीय शासन प्रणाली के दोष 

(1) शक्ति- पृथक्करण सिद्धांत के विरुद्ध

संसदात्मक शासन प्रणाली के दोष ; संसदात्मक शासन प्रणाली का सबसे गंभीर दोष यह है कि युवा शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के विरुद्ध है इसमें मंत्रिपरिषद व्यवस्थापिका का ही एक अंग होती है इसलिए नागरिकों के अधिकारों को सदैव खतरा बना रहता है।

(2) शीघ्र निर्णय का अभाव

किसी आसमानी य संकट की स्थिति में भी कोई परिवर्तन यह नियम शीघ्र लागू करना संभव होता है क्योंकि कार्यपालिका को व्यवस्थापिका से कोई भी कानून लागू करने से पूर्व आज्ञा लेनी पड़ती है और इसकी प्रक्रिया बहुत जलन होती है।

(3) दलीय तानाशाही का अभाव

इस व्यवस्था व्यवस्था में जिस राजनीतिक दल का व्यवस्थापिका में बहुमत होता है उसी दल के नेताओं को मंत्रिपरिषद निर्मित करने का अधिकार होता है ऐसी स्थिति में इस बात की प्रबल संभावना रहती है कि बहुमत प्राप्त सत्तारूढ़ दल स्वेच्छाचारी बन जाए और अपनी मनमानी करने लगे।

(4) सरकार की अस्थिरता

इस प्रकार की सरकार में मंत्री परिषद का कार्यकाल अनिश्चित होता है व्यवस्थापिका में मंत्री परिषद का बहुमत न रह पाने की स्थिति में मंत्रिपरिषद को शीघ्र ही त्यागपत्र देना पड़ता है बस कभी-कभी ऐसा होता है कि ऐसे अनेक महत्वपूर्ण कार्य बीच में ही छोड़ जाते हैं जो वास्तव में देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं बार-बार सरकार के बनने तथा बिगड़ने से रास्ते में धन का उपयोग हो जाता है तथा बार-बर मतदान प्रक्रिया में भाग लेने के कारण मतदाताओं की उदासीनता भी बढ़ जाती है।

(5) योग्य व्यक्तियों की सेवाओं का लाभ न मिल पाना

 शासन प्रणाली में सरकार बहुमत दल की ही बनती है इसलिए विरोधी दल के योग्य व्यक्तियों को कार्यपालिका से संबंधित शासन कार्यों में अपनी सेवा प्रदान करने का अवसर नहीं मिल पाता।

(6) उग्र राजनीतिक दल बंदी

 संसदात्मक शासन पद्धति में राजनीतिक दल निरंतर सक्रिय रहते हैं और वे एक दूसरे की आलोचना करने में लगे रहते हैं जिसके परिणाम स्वरुप समझते राजनीतिक वातावरण दूषित हो जाता है।

(7) कार्यपालिका की स्वतंत्रता का अभाव

संसदात्मक शासन में व्यवस्थापिका कार्यपालिका को अपनी इच्छा से कभी भी पदच्युत कर सकती है। और कार्यपालिका अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कम नहीं कर पाती है। कार्यपालिका की स्वतंत्रता के अभाव में शासन का कार्य ठीक प्रकार नहीं चल पाता है। 

(8) मंत्री परिषद को समय का अभाव 

मंत्रिमंडल को व्यवस्थापिका का भाई बना रहता है क्योंकि संसदात्मक शासन प्रणाली में मंत्री परिषद को व्यवस्थापिका पदच्युत कर सकती है। ऐसी स्थिति में मंत्री परिषद व्यवस्थापिका को प्रसन्न रखने में लगी रहती है अतएव उसे अपने कार्यों को संपन्न करने के लिए प्राप्त समय नहीं मिल पाता है।


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1 टिप्पणियाँ

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