जैन धर्म क्या है तथा उसकी शिक्षाएं

  जैन धर्म 

जैन धर्म :  महात्मा महावीर ने 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा बताए गए अहिंसा, सत्य ,अस्तेय और अपरिग्रह चार व्रतो में ब्रह्मचर्य नामक पांचवा व्रत और जोड़ दिया, जिसे उन्होंने बड़ा आवश्यक माना। अपरिग्रह पर बल देते हुए उन्होंने दिगंबर वेश पर बल दिया और जैन साधुओं को नग्न रहने का आदेश दिया जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत अथवा महावीर स्वामी की शिक्षाएं — 

जैन धर्म की शिक्षाएं 

(1) अनीश्वरवादिता में विश्वास 

जैन धर्म ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता अतः वह 19 फरवरी धर्म है जैन संप्रदाय के लोग तीर्थ करो की पूजा करते हैं और उन्हें महान आत्मा मानते हैं जैन धर्म ईश्वर या किसी देवी शक्ति को संसार का कर्ता नहीं मानता। 

(2) सृष्टि की नित्यता में विश्वास

जैन धर्म के विचार में यह सृष्टि अनादि तथा अनंत है अर्थात न इसके प्रारंभ का पता है और ना कभी इसका अंत होता है। ना कोई इसका बनाने वाला है। और न कोई से बिगाड़ सकता है ।इसका कभी अंत नहीं होता है। और वह निरंतर चलते रहता है। 

(3) कर्म एवं पुनर्जन्म

 जैन धर्म कर्म -प्रधान है । प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों के प्रति उत्तरदाई हैं तथा जैसा वह कर्म करता है उसी के अनुसार उसे फल मिलता है कर्म ही व्यक्ति के भाग्य और पुनर्जन्म में उसके रूप रंग का निर्माण करते हैं। कर्मों में बसा हुआ ही जीव संसार में भ्रमण करता है कर्म ही उसके पुनर्जन्म का कारण है। अपने कर्मों के अनुसार ही जीव को भिन्न-भिन्न शरीर और योनि में जन्म लेना पड़ता है ।कर्म की शक्तियों का विनाश और विकेंद्रीकरण ही जीवन की अंतिम मुक्ति है जब तक जियो अपने किए हुए कर्मों का फल भोग नहीं लेते तब तक उसकी मुक्ति असंभव है कर्म के संदर्भ में महावीर ने कहा था कर्म करने से जो आनंद प्राप्त होता है। उस में फंसा हुआ व्यक्ति कभी दुख और पाप से नहीं बच सकता कर्म ही मनुष्य के जन्म -मरण का कारण है। 

(4) सृष्टि का जीव तथा अजीव के सहयोग से निर्माण

जैन धर्म का विश्वास है कि इस सृष्टि का जीव तथा जव इन दो तत्वों के सहयोग से होता है। जैन धर्म के विचारों में जीव तथा जीव दोनों सास्वत अनादि और अनंत है। जीव स्वभावतया नित्य, चेतन , पूर्ण व अनंत ज्ञानमय  है। जीव चैतन्य द्रव्य और अजीब चैतन्य रहित है । जीव का विस्तार शरीर के अनुसार होता है ।अजीब के पांच भेद हैं पुद्गगल धर्माधर्म आकाश और काल पुद्गगल अपने मूल रूप में परमाणु है जो स्पर्श,रस, गंध एवं कर्णयुक्त होता है। पुद्गल ही कर्म है जो जीव को गिरे रखता है जहां जीव से तात्पर्य आत्मा से है जैन धर्म के अनुसार जीवन केवल मनुष्य तथा पशु पक्षियों में अपितु से पौधों पत्रों और जल में भी पाया जाता है। 

(5) मोक्षा या निर्वाण

मोक्ष मानव जीवन का चरम लक्ष्य है जैन धर्म के अनुसार मोक्ष का अर्थ है-  जीव की कर्म बंधन से पूरी तरह मुक्ति। भगवान महावीर ने जीवन का लक्ष्य मोक्ष को बतलाते हुए मानव को शुभ कार्य न करने और धीरे-धीरे सभी प्रकार के नवीन कर्मों को रोकने तथा संचित कर्मों को नष्ट करने का उपदेश दिया। कर्मफल से मुक्त होने के लिए जैन धर्म साधना की दो क्रियाएं सोमवार और निर्जरा बतलाता है। कर्मों के जीव की ओर प्रवाह को रोकने संवर कहलाता है पूर्व जन्म के संचित कर्मों को तब द्वारा हटाने की प्रक्रिया को निर्जरा कहते हैं। कर्म बंधन का मूल कारण जैन धर्म वासना वह तृष्णा को बतलाता है। वासना का कारण वह अविद्या को मानता है। जैन धर्म के अनुसार सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र द्वारा अविद्या से उत्पन्न बंधन को नष्ट किया जा सकता है। 

(6) त्रिरल

जैन धर्म के अनुसार आत्मा को कर्मों के बंधन से मुक्त करने के लिए क्षमा ज्ञान सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र की आवश्यकता है जैन धर्म में इन्हें  त्रिरल कहते हैं‌ 

(7) पंच महाव्रत

जैन धर्म में आत्मा को कर्म के बंधनों से मुक्ति प्रदान करवाने के लिए पंच महाव्रतों का स्थान महत्वपूर्ण है इन्हें पंच अणुव्रत के नाम से भी जाना जाता है। 

पंच महाव्रत - (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) अपरिग्रह (5)  ब्रह्मचर्य। 

(8) पंच अणुव्रत

जैन ग्रस्तों को पंच अणुव्रतों का पालन करना चाहिए। यह पांच अणुव्रत है - (1)अहिंसा (2)सत्य (3)अस्तेय(4) अपरिग्रह तथा (5) ब्रह्मचारी। परंतु गृहस्थी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि इन पंचायतों का पालन पंच महाव्रत ओं की भांति कठोरता से किया जाए। अपरिग्रह अणुव्रत के अंतर्गत आवश्यक से अधिक संपत्ति का संग्रह सिद्ध है और ब्रह्मचर्य व्रत में पर स्त्री गमन का निषेध है।

(9) जैन धर्म के 10 लक्षण

जैन धर्म के लक्षण जैन धर्म के अनुसार धर्म के 10 लक्षण बताए गए हैं जो यह है- 

(1) उत्तम क्षमा  (2) उत्तम मार्दव   (3) उत्तम मार्जव   (4) त्तम शौच   (5) उत्तम सत्य (6) उत्तम संयम  (7) उत्तम तप  (8) उत्तम अकिंनचन  (9) उत्तम ब्रह्मचर्य  (10)   उत्तम त्याग।

(10) सात सील व्रत

जैन धर्म के अनुसार पंच महाव्रतों के साथ-साथ सात शील व्रतों का पालन भी करना चाहिए- 

(1) दिग्व्रत- अपनी क्रियाओं को कुछ विशेष दिशाओं में सीमित करना।

(2) देशव्रत- अपना कार्य कुछ विशिष्ट प्रदेशों  तक सीमित रखना।

(3) अनर्थ दंडव्रत- बिना कारण अपराध ना करना।

(4) सामयिक - अपने ऊपर विचार करने के लिए कुछ समय निश्चित करना।

(5) प्रोषधोपवास- मांस के दोनों पक्षों की अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करना।

(6) उपभोग- प्रति भोग परिणाम दैनिक उपभोग की वस्तुओं व पदार्थ को नियमित करना। 

(7) अतिथि संविभाग- अतिथि को भोजन कराने के बाद भोजन करना। 

(11) अट्ठारह पापों से दूर रहना

जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को 18 पापों से दूर रहना चाहिए- (1)हिंसा  (2)झूठ  (3) चोरी (4)मिथुन (5) परिग्रह  (6)क्रोध (7) अभिमान  (8)माया  (9) लोभ  (10)राग (11) द्वेष (12)कलह (13) दोषारोपण (14) चुगली (15)असंयम में रति (16)निंदा (17)छल कपट तथा (18)मिथ्या दर्शन। 

जैन धर्म के अनुसार यह अट्ठारह आप मनुष्य को कर्म बंधन में डालते हैं जिससे वह जन्म मरण के बंधन से मुक्त नहीं हो पाता है। अतः इन अट्ठारह पापों से दूर रहकर ही मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। 

(12) वेदों में अविश्वास 

जैन धर्म वेदों को प्रमाणिक ग्रंथ नहीं मानता। महावीर स्वामी वेदों में विश्वास नहीं रखते थे। वेदों का कर्मकांड स्नेह स्नेह भोगवादी सभ्यता का दर्शन हो गया था। इसी कारण जैन धर्म एवं महावीर स्वामी ने वेदों में अविश्वास व्यक्त किया। 

(13) नारी को स्वतंत्रता

महावीर नारी स्वतंत्रता के समर्थक थे। वे नारियों के सामाजिक और धार्मिक अधिकारों के पक्षधर थे उन्होंने स्त्रियों के लिए जैन धर्म के द्वार खोल दिए उन्होंने पुरुषों के समान स्त्रियों को भी निर्वाण प्राप्ति के अधिकारियों बतलाया। तथा जैन धर्म के संघ के द्वार स्त्रियों के लिए खोल दिए इससे जैन धर्म में स्त्रियों के 2 वर्ग हो गए— श्रवण और श्राविका।


महत्वपूर्ण जानकारी 


जैन धर्म के संस्थापक कौन थे?

जैन धर्म के संस्थापक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे।

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर कौन थे?

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे।

जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर कौन थे?

जैन धर्म के अंतिम अथवा 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे।

जैन धर्म की शिक्षाएं?

जैन धर्म की शिक्षाएं या सिद्धांत - (1) अनीश्वरवादिता में विश्वास (2) सृष्टि की नित्यता में विश्वास (3) कर्म एवं पुनर्जन्म (4) सृष्टि का जीव तथा अजीव के सहयोग से निर्माण (5) मोक्षा या निर्वाण (6) त्रिरल (7) पंच महाव्रत (8) पंच अणुव्रत (9) जैन धर्म के 10 लक्षण (10) सात सील व्रत

दशलक्षण पर्व कब मनाया जाता है?

दशलक्षण पर्व भाद्रपद मास मनाया जाता है।

जैन धर्म के दस लक्षण?

जैन धर्म के दस लक्षण - (1) उत्तम क्षमा (2) उत्तम मार्दव (3) उत्तम मार्जव (4) उत्तम शौच (5) उत्तम सत्य (6) उत्तम संयम (7) उत्तम तप (8) उत्तम अकिंनचन (9) उत्तम ब्रह्मचर्य (10) उत्तम त्याग।

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